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अनत्थ सूत्र
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पद का प्रयोग करना जरूरी है, क्योंकि अपनी प्रतिज्ञा है कि, “जब तक
अरिहंत भगवान को नमस्कार करने स्वरुप 'नमो अरिहंता' पद न बोलूँ, तब तक मैं कायोत्सर्ग में हूँ।" इसलिए ये शब्द बोले बिना कायोत्सर्ग पूरा किया जाए, तो दोष लगता है ।
३. इस सूत्र में कायोत्सर्ग किस तरीके से करना है, उसका स्वरूप "ठाणेणं मोणेणं झाणेणं" द्वारा बताया है । कायोत्सर्ग में मात्र काया का त्याग ही करना है, ऐसा नहीं है, परन्तु मन-वचन-काया इन तीनों योगों को स्थान द्वारा, मौन द्वारा एवं ध्यान द्वारा स्थिर करना है ।
४. अन्त में इस सूत्र में 'अप्पाणं कायं वोसिरामि' शब्दों द्वारा कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा बताई गई है । इन शब्दों द्वारा हमें अपनी काया पर ममत्व का, स्वामित्व का एवं काया को ही 'मैं' मानने का जो भाव है; उसका त्याग करना है ।
इस सूत्र में जिस तरीके से कायोत्सर्ग करने को कहा गया है, उस तरीके से अगर पूरे उपयोग से, बुद्धि की सतर्कता से, अत्यंत एकाग्रता से, धीरता-गंभीरता आदि से कायोत्सर्ग किया जाए, तो कायोत्सर्ग से बहुत से कर्म नाश हो जाते हैं क्योंकि, कायोत्सर्ग सर्वश्रेष्ठ तप कहलाता है । बारह प्रकार के तप में एक से बढ़कर एक तप हैं लेकिन उन सब में बड़ा तप कायोत्सर्ग है । पूर्व के ११ तप के अभ्यासवाले साधक ही इस 'कायोत्सर्ग' तप में मन को स्थिर कर महाकर्मनिर्जरा कर सकते हैं ।
कायोत्सर्ग के दूसरे भी अनेक फायदे हैं । काया की जड़ता का त्याग होता है । बुद्धि निर्मल होती है । सुख दुःख को सहन करने की शक्ति उत्पन्न होती है । मन-वचन-काया की चंचलता नष्ट होकर एकाग्रता प्राप्त होती है । स्थितप्रज्ञता प्राप्त होती है । पदार्थ को खूब गहराई से देखने की शक्ति बढ़ती है । शुभ ध्यान प्राप्त होता है । इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा है, साधु 'अभिक्खणं काउस्सग्गकारी' होता है अर्थात् साधु ऐसे गुणों को प्राप्त करने के लिए बार-बार कायोत्सर्ग करता है । 1. देहमइजड्डुसुद्धि सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा । झायइ च सुहं झाणं एयग्गो काउस्सग्गंमि ।।
- आवश्य नियुक्ति १४६२