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________________ १६८ सूत्र संवेदना यहाँ ईरियावही सूत्र से शुरू हुई संपदाओं के क्रम के अनुसार आठवीं प्रतिक्रमण संपदा पूर्ण होती है । जिज्ञासा : अगर कायोत्सर्ग की क्रिया आत्मा में रही हुई अशुद्धि, शल्य या पाप से रहित होने के लिए करनी है, तो कायोत्सर्ग में उसके उपाय ही सोचने चाहिए, फिर लोगस्स आदि का चिंतन किसलिए ? तृप्ति : कायोत्सर्ग पाप की शुद्धि आदि के लिए ही करना है और पाप की शुद्धि का भाव पाप से संपूर्णतया मुक्त २४ तीर्थंकरों के स्मरण से शीघ्र उत्पन्न हो सकता है । इसलिए कायोत्सर्ग में लोगस्स वगैरह का जाप करने की विधि है । लोगस्स द्वारा २४ तीर्थंकरों के नाम का स्मरण, कीर्तन इस तरीके से करना चाहिए कि जिससे उनके प्रति आदर हो, पाप से विरूद्ध शुद्ध भाव स्फूरित हों, एवं उसके फलस्वरूप अपने पापों का नाश हो तथा आत्मा शुद्ध बन सके । इसके अतिरिक्त तीर्थंकर के नाम का स्मरण ही स्वयं पाप का नाश करता है । लोगस्स सूत्र में भी भगवान से समाधि एवं मोक्ष ही माँगते हैं, और मोक्ष मिलने पर सब कर्मों का, पापों का, क्षय हो ही जाएगा । इस सूत्र का बोध यही है कि, हम से कोई भी भूल हो गई हो, तो उन भूलों का सरलता से स्वीकार करना चाहिए । सच्चे मन से उसकी निंदा करनी चाहिए । महर्षियों द्वारा बताए हुए प्रायश्चित्त का मार्ग ग्रहण करना चाहिए एवं दुबारा ऐसी भूल न हो उसके लिए चित्तवृत्तियों को अच्छी तरह से शुद्ध करके उनमें रहे हुए शल्य या दोष निकाल देने चाहिए । 'गुरुतत्त्व विनिश्चय' नामक ग्रंथ में कहा गया है कि, आज का समय तो ऐसा है कि पल-पल व्रत भंग एवं स्खलनाएँ होती ही रहती है; परन्तु जब तक प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि करने के अध्यवसाय स्वरूप व्रत के प्रति सापेक्षता है, तब तक व्रत के परिपाम स्वरूप संवर भाव भी हैं ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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