SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तस्स उत्तरी सूत्र काया की ममता का त्याग समझना है और ठामि = तिष्ठामि के अनेक अर्थ होते हैं उसमें से यहाँ करेमि = करता हूँ ऐसा अर्थ ग्रहण करना है । १६७ जिसे पापकर्म एवं पापवासनाएँ त्रासदायी लगती हों, उसे उनके संपूर्ण नाश के लिए सावधान रहना चाहिए । इनके नाश के लिए कायोत्सर्ग अत्यन्त बलवान उपाय है । दोषों की परिपूर्ण शुद्धि के लिए मन-वचनकाया के दूसरे सब योगों की अपेक्षा कायोत्सर्गे श्रेष्ठ उपाय है । कायोत्सर्ग में चित्त तो अत्यंत स्थिरतावाला होता ही है, पर उसके अलावा वाणी एवं काया के व्यापार भी शांत हो जाते हैं । इसलिए ऐसी स्थिति में ही दोषों का चिंतन एवं बाद में उनकी शुद्धि की संभावना बनती है । दोषों से मलिन बनी हुई आत्मा को शुद्ध करने का उपाय कायोत्सर्ग नाम का प्रायश्चित्त है । उस कायोत्सर्ग के लिए चित्त को तैयार करने की प्रक्रिया इस सूत्र में समाविष्ट है । इसलिए साधक को इस सूत्र का उच्चारण करते हुए सोचना चाहिए, “हे भगवंत ! कषायवश बनी मेरी आत्मा को मुझे शुद्ध करना है और उसके लिए ही मैं आपके द्वारा बताई हुई कायोत्सर्ग की क्रिया करने के लिए तैयार हुआ हूँ । आज मेरे मन में पाप की शुद्धि करने के अलावा इहलोक या परलोक के सुख की कोई इच्छा नहीं है। मैं जैसा हूँ वैसा ही आप के सामने प्रकट हुआ हूँ । न आप से कुछ छिपा है न मैं कुछ छिपाना चाहता हूँ । मुझसे बहुत सारी भूलें हुई हैं और अब भी बहुत सारी भूलें होती रहती हैं । आज मैंने आपको सरल भाव से सब कुछ बताया है। मुझे तो मात्र अपने कषाय, प्रमाद और अस्थिर मन के जिन कारणों से भूलें होती रहती हैं, उनसे छूटना है । आप कृपा करके मुझे उनसे मुक्त होने के लिए जो जरूरी हो वैसे तप-जप आदि प्रदान करें । मैं उसका पालन कर अपने हृदय का परिवर्तन करके एक ऐसी चित्तवृत्ति निष्पन्न करूँगा, जिससे जाने-अनजाने में भी वह पाप करने को प्रेरित न हो ।”
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy