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________________ तस्स उत्तरी सूत्र १६५ निदान शल्य है या नहीं उसे समझने के लिए सोचना चाहिए कि प्रायश्चित्त करने के पीछे मेरी कोई इस लोक या परलोक की भौतिक लालसा तो काम नहीं कर रही है ? आत्म शुद्धि की इच्छा से ही मैं प्रायश्चित्त करता हूँ न ? मेरी बुद्धि में महत्त्व किसका है - आत्मा की विशुद्धि का या पुण्य से मिलनेवाले भौतिक सुखों का ? प्रायश्चित्त करके किसी की प्रीति पाने या अन्य कोई सुख पाने का आशय तो नहीं है न ? यदि जवाब में किसी आशंसा के भाव व्यक्त हों तो समझना चाहिए कि निदान शल्य अभी चित्त में आसन बिछाए बैठा है । जब तक संसार के किसी भी सुख की आशंसा होती है, तब तक निराशंस भाव से धर्म नहीं होता । इसलिए ऐसी सांसारिक आशंसा का सर्वप्रथम त्याग करना चाहिए । इस शल्य को निकालने के लिए मन को समझाना चाहिए कि, अनंतकाल से हम संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं, उसका कारण यह नहीं है कि हमने प्रायश्चित्त आदि सत्क्रियाएँ योग्य तरीके से नहीं कीं । परन्तु इन सत्क्रियाओं का जो वास्तविक फल मोक्ष है, उसकी इच्छा के बदले हमने तुच्छ अपेक्षाओं को महत्त्व दिया । यह महाशल्य मोक्षमार्ग में एक अंतराय रूप है, जो आत्मा को उच्च चारित्र तक नहीं पहुँचने देता एवं भव-वन में घुमाता रहता है । इसलिए अव्यक्त रूप से भी इस शल्य का परिणाम चित्त में न रहे, इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए जिससे विशुद्धि में रुकावट न आए एवं शुद्धि सदा बनी रहे । ऐसी चित्तवृत्ति बनाने के लिए दृढ़ संकल्प करना ही विसल्लीकरण है । इन चार पदों द्वारा कायोत्सर्ग के उपाय स्वरूप सूत्र का दूसरा विभाग संपन्न होता है । ३. कायोत्सर्ग का प्रयोजन : अब उत्तरीकरण के लिए कायोत्सर्ग में रहने का जो लक्ष्य निश्चित किया है, उसका मूल प्रयोजन दर्शाते हुए कहते हैं कि,
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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