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सूत्र संवेदना
माया शल्य है कि नहीं इसकी खोज करने के लिए सोचना चाहिए कि धर्म के आचरण में कहीं भी माया या दंभ तो नहीं है न ? हमने जिन जिन पापों का सेवन किया है, उन पापों को जब गुरु के समक्ष कहने का प्रसंग आए, तब उसको उसी भाव से या क्रम से कह सकते हैं ? या फिर किसी प्रकार आगे-पीछे, कम - अधिक कहने का मन होता है ?
यदि जवाब हाँ में आए, तो समझना चाहिए कि माया शल्य अभी तक हृदय में डेरा - तंबू डालकर पड़ा है । मान, मायावी प्रकृति, स्त्री सहज स्वभाव, रागादि की तीव्रता, किए हुए पापों के प्रति लज्जा, किए पापों को फिर से नहीं करना ऐसे सत्त्व का अभाव, लोभवृत्ति, पूर्व में हुई माया वगैरह माया शल्य का सेवन करवाए, वैसे भयंकर दोष हैं । इसलिए स्पष्ट माया न भी दीखती हो, या तो माया का निश्चय होते हुए भी उसका बचाव करने का मन होता हो तो समझना चाहिए कि अंतर में इनमें से कोई दोष बैठा हुआ है । इसके अलावा बहुधा जब गुरु अपने से महान हैं, ऐसी प्रतीति नहीं होती तब, या तो गुरु की योग्यता में ही शंका होती हो तब भी जीव माया करने के लिए प्रेरित होता है ।
इस शल्य को हटाने के लिए सर्वप्रथम तो यह शल्य कैसे उत्पन्न हुआ, उसकी छान-बीन करनी चाहिए । उसके बाद उसकी अनर्थकारिता का विचार करके सत्त्व गुण प्रगट करना चाहिए । बार बार दंभ से होनेवाले नुकसानों के बारे में सोचना चाहिए एवं दंभ का त्याग करना चाहिए । इसके अतिरिक्त, संसार की निर्गुणता' का भी सतत विचार करना चाहिए, क्योंकि संसार की भयानकता उपस्थित होने पर ही माया का त्याग हो सकता है । ऐसे अनेक उपायों से माया शल्य को निकालकर पापों के प्रति जुगुप्सा के परिणाम पैदा करके जो पाप जिस तरीके से किए हों, उसी तरीके से गुरु के समक्ष निवेदन करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए, जिससे अपनी हालत लक्ष्मण साध्वी जैसी न हो जाए ।
5. अध्यात्मसार का दंभृत्याग अधिकार इसके लिए उपयोगी है ।
6. अध्यात्मसार का भवस्वरूप चिंता अधिकार इसके लिए उपयोगी है ।