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सूत्र संवेदना
भी माया शल्य का प्रभाव है । अन्य के नाम से प्रायश्चित्त करना जैसे "किसी ने ऐसा किया हो तो क्या प्रायश्चित्त आता है ?" ऐसा कहकर प्रायश्चित्त ग्रहण करना, माया शल्य कहलाता है । ८० चोबीसी पहले हुए लक्ष्मणा साध्वी ने प्रभु के पास इसी तरीके से प्रायश्चित्त ग्रहण करके ५० वर्ष तक घोर तप किया । परन्तु ऐसा घोर तप करने के बाद भी माया शल्य के कारण वे आज तक संसार में भ्रमण कर रही हैं ।
३. निदान शल्य : प्रायश्चित्त के बदले में भौतिक सुख पाने की इच्छा निदान शल्य है । प्रायश्चित्त करने से पुण्य बंध होगा एवं उससे भवान्तर में दिव्य भोगों की प्राप्ति होगी और पापों के उदय से दुःख नहीं भुगतना पड़ेगा। इस तरह परलोक के सुख की इच्छा से प्रायश्चित्त करना, निदान शल्य युक्त प्रायश्चित्त कहलाता है । इसके अतिरिक्त अपराध होने के बाद 'मैं अपना अपराध गुरु से यथार्थ रूप से कहूँ, जिससे मुझ पर गुरु की विशेष कृपा हो' अथवा 'मैं प्रायश्चित्त करूँ, तो गुरु लोगों से कहेंगे कि ये महात्मा शुद्ध प्रायश्चित्त करनेवाले हैं।' ऐसे मानादि लौकिक सुख के आशय से प्रायश्चित्त करना भी निदान शल्य है । __ शरीर में कांटा (शल्य) लगा हो और उसे निकाले बिना कितनी भी मरहमपट्टी की जाए, तो वह मरहमपट्टी लाभप्रद नहीं होती एवं घाव भी नहीं भरता । उसी तरह आत्मा में यदि भाव शल्य रहा हो तो आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त या विशुद्धिकरण स्वरूप मरहम-पट्टी भी आत्मा के भाव रोगों का इलाज नहीं कर सकती । आलोचना-विंशिका में तो शल्य की अनर्थकारिता बताते हुए यहाँ तक कहा है कि, अगर भाव शल्यों का उद्धार (निकाल) न कर सके, तो घोर तपादि प्रायश्चित्त करने पर भी जीव दुर्लभ बोधि' बन सकता है एवं उसे अनंत संसारिता भी प्राप्त होती है । इसलिए कायोत्सर्ग से विशेष शुद्धि स्वरूप उत्तरीकरण करने की इच्छावाली 4. जं कुणइ भावसल्लं अणुद्धियं उत्तिमढकालम्मि । दुल्लहबोहीयत्तं अणंतसंसारियत्तं च ।।
- विंशतिविंशिका-१५, गा. १५