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तस्स उत्तरी सूत्र
अशुद्धि को निकालने में जो रुकावट पैदा करते हैं, उप बाधक परिणामों (भावों/विचारों) को शल्य कहते हैं । कंपाने, या रोकनेवाले को शल्य कहते हैं । यह शल्य भी दो प्रकार का है जो वस्तु शरीर में प्रवेश कर शरीर को कंपित करे शरीर में खटके वह कांच, कांटा वगैरह द्रव्य शल्य है क्योंकि उससे शरीर में पीड़ा होती है एवं जो शल्य आत्मा को कंपित करे, आत्मां को पीड़ा दे, अस्थिर एवं अस्वस्थ बनाए वे अतिचार, दोष, पाप आदि भाव शल्य हैं ।
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भाव शल्य के तीन प्रकार :
ये भाव शल्य मुख्य तीन विभाग में बांटे गये हैं ।
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१. मिथ्यात्व शल्य : दोषों की दोष के रूप में पहचान ही न होने देना, मिथ्यात्व शल्य है । कभी प्रमादादि दोषों के कारण, कोई स्खलना हो गई हो या किसी अतिचार का आसेवन हो गया हो और योग्य गुरु की प्राप्ति होने के बाद उनके समझाने पर भी वे दोष दोषरूप न लगे और इस कारण से दोषों का प्रायश्चित्त करने का मन ही न हो, कई बार प्रायश्चित्त हो तो भी पाप के फल के भय से प्रायश्चित्त किया जाय, परन्तु पाप की खटक से या आत्मशुद्धि के लिए तो प्रायश्चित्त करने का मन ही न हो, ये सब विचार मिथ्यात्व शल्य हैं । इसके उपरांत गाढ अनंतानुबंधी कषाय के उदय के कारण जिनेश्वर के वचन पर श्रद्धा नहीं होने से, संसार की असारता का अनुभव किए बिना तपादि प्रायश्चित्त करे, तो वह प्रायश्चित्त मिथ्यात्व शल्य से युक्त कहलाता है ।
२. माया शल्य : माया शल्य याने चित्त की वक्रता या पाप करने के बाद पाप छिपाने का भाव । कई बार दोषों की दोषरूप से समझ भी होती है एवं गुरु के पास प्रायश्चित्त करने की इच्छा भी हो, तो भी चित्त की वक्रता के कारण 'मैं खराब लगूँगा', 'लज्जित होऊंगा' ऐसा भय भी होता है, इसलिए प्रायश्चित्त करने पर भी दोषों का यथार्थ कथन नहीं होता - यह