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सूत्र संवेदना
अशुद्धियों का ख्याल आने के बाद उससे मलिन बने हुए चित्त को विशेष शुद्ध करने के लिए इस प्रकार चिंतन करना चाहिए -
'हे आत्मन्! दुर्लभ पाँच इन्द्रियों और तन-मन की इतनी शक्ति प्राप्त करके तू उनका दुरुपयोग क्यों करता है ? आत्मकल्याण में उनका उपयोग कर । अतिचार लगने का मुख्य कारण तेरे उपयोग की शून्यता एवं चित्तवृत्ति की चंचलता है । जब तक तू चंचलता पर विजय नहीं प्राप्त करेगा, तब तक समिति में जैसा चाहिए, वैसा उपयोग नहीं रख सकेगा एवं इस तरह तो बार बार अतिचार लगते ही रहेंगे । अब तुमने सद्गुरु के मुख से आत्मा का स्वरूप सुना है, तो उनके शब्द हृदय को स्पर्श करें ऐसी चित्त की निर्मलता बना एवं जिनेश्वर के वचनों को इस
तरीके से दृढ़ कर कि जिससे पुनः ये दोष लगे ही नहीं ।' । ऐसा सोचकर चंचलता आदि दोषों का नाश करना एवं पुनः दोषों का आसेवन न हो, इसलिए अडिग संकल्प करना ही विशुद्धिकरण है । रागादि परिणाम मेरी आत्मा को विकृत करते हैं, यह दृढ़ करने के बाद रागादि से विरुद्ध भावों की तरफ अपने वीर्य का प्रवर्तन करना, विशुद्धिकरण है । दोषों के संस्कार दूर करने से हुई आत्मा की निर्मलता विशुद्धिकरण है।
सच्चा प्रायश्चित्तकरण इस विशोधिकरण से ही होता है । विशुद्धि-करण भी आत्मा में पड़े हुए शल्य दूर करने से ही होता है । जब तक आत्मा शल्य युक्त हो तब तक विशुद्धिकरण नहीं हो सकता । इसीलिए आत्मा को अत्यंत शुद्ध रखने की इच्छा करनेवाले साधक को विशुद्धिकरण करने से पहले आत्मा में से शल्य बाहर निकाल देना चाहिए ।
इसलिए अब विशुद्धिकरण का उपाय बताते हुए कहते हैं कि,
विसल्लीकरणेणं : आत्मा को शल्यरहित बनाने के द्वारा ।