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________________ तस्स उत्तरी सूत्र . १५९ विशोधिकरण कहते हैं । यह विशोधिकरण का अध्यवसाय यौने चित्त की एक ऐसी परिणति जिसके द्वारा भूल के कारण ढूंढकर उस भूल से मुक्त होने का यत्न किया जाता है । ऐसे विशुद्धिकरण नाम के अध्यवसाय से ही प्रायश्चित्तकरण शुद्ध हो सकता है । विथुद्धि के प्रकार : सामान्य से विशुद्धि दो प्रकार की होती है : १. द्रव्य विशुद्धि : नमक, सोडा, साबुन, पानी वगैरह द्रव्यों से शरीर वस्त्रादि की शुद्धि करना, द्रव्य विशुद्धि है एवं २. भाव विशुद्धि : दोषों से मलिन बनी हुई आत्मा को आलोचना, स्वाध्याय, तप, कायोत्सर्ग आदि क्रिया से शुद्ध करना, भाव विशुद्धि है । __ यह सूत्र भाव विशुद्धि का साधन है । वह आत्मा की अशुद्धियों को दूर करता है । आत्मा में पड़े हुए कषायों के कुसंस्कार, विषयों की आसक्ति, राग-द्वेष के भाव, प्रमाद इत्यादि आत्मा की अशुद्धियाँ हैं । उनको दूर करने का प्रयत्न करना, भाव विशुद्धि की प्रक्रिया है। प्रायश्चित्त या पाप का पश्चात्ताप करने से पूर्व साधक को वह (पाप), भूल मुझसे क्यों हो गई, उसका कारण ढूँढने के लिए सोचना चाहिए कि, "प्रभुवचन पर मुझे विश्वास है ? पाप एवं पाप के फल संबंधी कहीं अश्रद्धा तो नहीं ? मुझ पर कषाय हावी तो नहीं हुए ? मेरी आत्मा में कहीं हिंसा के विचार तो प्रवृत्त नहीं हैं ? पाँच इन्द्रियों की अधीनता तो नहीं है ? प्रमाद नाम के दोष से मेरी आत्मा पीडित तो नहीं है ? उपयोग के अभाव में सत्त्वहीनतादि के कारण मैंने कितने पाप किये हैं ? क्या मेरी आत्मा अभी भी स्वमति से ही व्यवहार करना चाहती है ? जिनेश्वर के वचनों की विस्मृति तो नहीं हुई है... ?" ऐसे विचार करके ध्यान में आई हुई अशुद्धियों पर गंभीर चिंतन करके उन्हें निकालकर विशुद्ध बनाना चाहिए । सच्चा प्रायश्चित्तकरण का यही उपाय है ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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