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________________ १५८ सूत्र संवेदना प्रायश्चित्त, ऐसा भी प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ है । संक्षेप में, प्रायश्चित्त का परिणाम अर्थात् पाप को दूर करने का परिणाम । मोक्षाभिमुख साधक दोषों की शुद्धि के लिए अत्यन्त जागृत होता है । इसलिए दोषों को सरल भाव से स्वीकार करता है । दोषों को सामान्य से आलोचनादि द्वारा शुद्ध करने के बाद भी अगर कुछ प्रायश्चित्त करना जरूरी होता है, तो वह करने के लिए भी साधक सदा तत्पर होता है । इस शब्द का उच्चारण करते समय सोचना चाहिए, 'यथासमय गुरु के समक्ष मैं अपने अतिचारों को प्रकाशित करके, वे जो प्रायश्चित्त देंगे उसे सम्यक् प्रकार से ग्रहण करूँ । श्री जिनेश्वर भगवान ने पाप का नाश करने के लिए जो दस प्रकार के प्रायश्चित्त कहे हैं, उनमें से कायोत्सर्ग नामक प्रायश्चित्त करने में प्रवृत्त होकर मैं चित्त की शुद्धि कर लूँ एवं फिर वे अतिचार न लगें उसकी सावधानी रखू ।' गुरु के उपदेश से या भवान्तर में बंधे हुए पाप के उदय से होनेवाले अनर्थों के भय से कई बार पाप के नाश के लिए प्रायश्चित्त करने का भाव उत्पन्न हो सकता है, तो भी जब तक पाप के कारणों की शुद्धि नहीं होती, तब तक पाप होने की शक्यता बनी रहती है । इसलिए प्रायश्चित्त करने से पहले आत्मा पर जो मलिन संस्काररूप अशुद्धियाँ हों, जिनके कारण पाप होता है, उन्हें दूर करना चाहिए, उससे प्रायश्चित्त शुद्ध हो सकता है । इस शुद्ध प्रायश्चित्तकरण का उपाय 'विशोधिकरण' है । अब प्रायश्चित्तकरण का उपाय बताते हुए कहते हैं कि, विसोही-करणेणं' : विशुद्धिकरण करने द्वारा आत्मा की अशुद्धियों को विशेष प्रकार से शुद्ध करने के अध्यवसायों को 3. पावं छिंदति जम्ह, पायच्छितं ति भण्णई तेवा । पाएण पावि चित्तं, सोह यति ते ण पच्छित्तं ।।३।। - पच्चाशक - २६
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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