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________________ तस्स उत्तरी सूत्र १५७ इरियावही द्वारा जिन अतिचारों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण नाम का प्रायश्चित्त किया हो, उन अतिचारों का ही इस सूत्र द्वारा उत्तरीकरण करने रूप कायोत्सर्ग नामक प्रायश्चित्त करना है । उत्तरीकरण का अध्यवसाय शुद्ध कायोत्सर्ग करने का उपाय है । इसीलिए सूत्र में कहा गया है कि पाप नाश करने के लिए उत्तरीकरण से कायोत्सर्ग करता हूँ । 1 उत्तरीकरण से अत्यंत स्वच्छ बने हुए चित्त द्वारा कायोत्सर्ग किया जाए, तो उत्तम पुरुष के ध्यान द्वारा उनके गुणों के प्रति आकर्षण पैदा होता है । इन गुणों का आकर्षण पाप के प्रति तिरस्कार पैदा करता है । पाप के विरुद्ध भावों से ही पाप करने के संस्कार मूल से नाश होते हैं एवं संवर के भाव टिके रहते हैं और इस संवर भाव से व्रत पूर्णतया शुद्ध बनता है । इरियावहिया सूत्र में जिन अतिचारों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त किया था, उन अतिचारों के संस्कारों का मूल से नाश करना, साधक का लक्ष्य होता हैं । उसके लिए ही वह कायोत्सर्ग करता है एवं कायोत्सर्ग उत्तरीकरणपूर्वक करता है । वह उत्तरीकरण किस तरह से सिद्ध होता है ? उसके उत्तर स्वरूप अब ये तीन पद हैं । अब उत्तरीकरण का उपाय बताते हुए कहते हैं, पायच्छित्त करणेणं : प्रायश्चित्त करने से, प्रायश्चित्तरूप उपाय द्वारा उत्तरीकरण करके, पापों का नाश करने के लिए मैं कायोत्सर्ग में रहता हूँ । सूत्र का अन्वय इस प्रकार है । पाप के परिणाम के विरुद्ध, शुद्ध आत्मा का परिणाम, वह प्रायश्चित्त का परिणाम है । “प्रायश्चित्त" शब्द " प्रायः " एवं "चित्त" इन दो शब्दों से बना है। उसमें प्रायः का अर्थ बहुधा एवं चित्त का अर्थ मन या आत्मा होता है अर्थात् मन या आत्मा को मलिन भावों से अधिकतर शुद्ध करने की क्रिया या अध्यवसाय प्रायश्चित्त करण है । 'पापों को छेदने की क्रिया' वह
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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