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सूत्र संवेदना
विरति धर्म का स्वीकार कर सभी के प्रति दयावान मैं कब बनूँगा ? अशरीरी बनकर सर्व जीवों को पीड़ा देने के दुष्ट भावों से मैं कब मुक्त बनूँगा ? इस भाव के साथ आज सर्व जीवों को स्मृति में लाकर उनके प्रति किए हुए अपराधों का भावपूर्वक
'मिच्छा मि दुक्कडं' देता हूँ ।” यह प्रतिक्रमण संपदा है।
इस सूत्र के एक एक पद अगर ध्यानपूर्वक बोले जाय, तो मन छ : जीवनिकाय के पालन में दृढ़ यत्नवाला बनता है । यह क्रिया करने के पूर्व मन की शिथिलता से या प्रमाद से छ: काय के वध से बंधे हुए पापकर्म शिथिल होते हैं । आत्मा में अहिंसा धर्म के संस्कार तीव्र होते हैं । उसके कारण हिंसा करने के कुसंस्कार धीरे धीरे नष्ट होते जाते हैं । पहले जीववीर्य हिंसादि कार्य में लीन था, वह अब अहिंसक भाव में लीन होता है ।
जो व्यक्ति ध्यान के बिना या ज्वलंत उपयोग के बिना मात्र क्रिया करनी चाहिए, ऐसा मानकर मात्र यह सूत्र बोलता है, उसे उपर्युक्त लाभ नहीं होता, लेकिन साध्वाचार के उल्लंघन या जीवहिंसा का परिणाम जैसा था वैसा ही चालू रहता है । ऐसे व्यक्ति की इरियावहिया की क्रिया भी मृषावादरूप ही बनती है क्योंकि वह 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' वगैरह पद बोलता है; परन्तु हिंसादि भाव से निवर्तन का परिणाम उसमें नहीं होता ।