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इरियावहिया सूत्र
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यदि उससे भी अधिक तीव्र भाव से 'मिच्छामि दुक्कडं' दिया जाए, तो उस भूल से बांधे हुए कर्मों का अवश्य नाश होता है । इसलिए साधक को 'मिच्छामि दुक्कडं' शब्द का उच्चारण करते समय हृदय को कोमल बनाकर, पुनः पुनः ऐसी भूल नहीं करूँगा, ऐसा दृढ़ संकल्प करके स्वमर्यादा और औचित्य को ध्यान में रखकर हृदय में पाप के प्रति तीव्र जुगुप्सा प्रकट करनी चाहिए । मुझसे यह बहुत गलत हुआ है, ऐसे पाप का स्वीकार करके जिस कषाय के वश होकर पाप-दोष का सेवन हुआ हो, उन कषायों को शांत करके हदयपूर्वक पश्चात्ताप के भाव से 'मिच्छा मि दुक्कडं'5 बोलना चाहिए ।
धर्मसंग्रह आदि शास्त्रानुसार ५६३ जीव भेदों को प्रत्येक ढंग से 'मिच्छा मि दुक्कडं' देते हुए ‘मिच्छा मि दुक्कडं' के १८,२४,१२० भेद होते हैं । ५६३ जीव भेदों को अभिहया वगैरह १० प्रकार की विराधना से गुणाकार करने से ५६३० भेद होते हैं । वे भी राग एवं द्वेष से होती है, इसलिए इनको २ से गुणा करने से ११२६० भेद होते हैं । उनको मन-वचन-काया इन तीन योगों से गुणा करने से ३३,७८० होते हैं । उनको करना-करवानाअनुमोदन करना इन तीन करण से गुणा करने पर १,०१,३४० होते हैं। उन्हें भूत-भविष्य-वर्तमान ऐसे ३ काल से गुणा करने से ३,०४,०२० भेद होते हैं । उन्हें १-अरिहंत, २-सिद्ध, ३-साधु, ४-देव, ५-गुरु, ६-आत्मा की साक्षी से 'मिच्छा मि दुक्कडं' देना है । इसलिए ६ से गुणा करने से कुल १८,२४,१२० भेदों से 'मिच्छा मि दुक्कडं' होता है । यह पद बोलते हुए साधक सोचता है कि,
“अपने जैसे ही अनंत जीवों को मैंने जो पीड़ा दी है, उसका मुख्य कारण मेरे हृदय की कठोरता है । कोमल हृदय कभी किसी को पीड़ा नहीं दे सकता और किसी की पीड़ा देख भी
नहीं सकता । प्रभु ! मेरा हृदय कब ऐसा कोमल बनेगा ? 5. इस शब्द का विशेषार्थ अब्भुट्टिओ' सूत्र में है ।