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इरियावहिया सूत्र
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और मनरहित । उसमें मनवाले जीवों में विशिष्ट बुद्धि और शक्ति होती है। उनकी चेतना अति स्पष्ट होती है । वे निर्णय करें, तो आत्मकल्याण की दिशा में विकास कर सकते हैं ।
पंचेन्द्रिय जीवों में नरक के जीवों की विराधना काया से सम्भव नहीं है। मात्र मन से उनके प्रति अभाव, दुर्भाव या वचन से उनके लिए कुछ भी बोलना, उनकी विराधना है ।
देव भी देवलोक में रहते हैं, अतः सामान्य लोग उन्हें पीड़ा नहीं दे सकते, फिर भी मंत्र-तंत्र द्वारा उनका स्तंभन वगैरह कर सकते हैं, कभी वाणी द्वारा भी उन्हें दुःखी किया जाता है, उनके लिए किए गए अशुभ विचार भी उनके दुःख का कारण बनते हैं, इस प्रकार देवों की विराधना होती है ।
पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में गाय, भैंस, बैल वगैरह पर अतिभार लादना, उनके चारे - पानी में विलंब करना, मार मारना, कत्ल करना या उन्हें पीड़ा हो ऐसी कोई भी प्रवृत्ति करना अथवा जिसमें ऐसे पंचेंद्रिय जीवों की हिंसा हुई हो, वैसी चीजों का उपयोग करना वगैरह तिर्यंच पंचेन्द्रिय की विराधना है।
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं : गर्भज और संमूर्छिम । उसमें संमूर्छिम मनुष्य गर्भज मनुष्य के मल-मूत्र, लार वगैरह अशुचि में उत्पन्न होते हैं । आहार-पानी झूठे छोड़ने से, गटर वगैरह में झूठन डालने से इन जीवों की उत्पत्ति और विनाश सतत चालू ही रहता है, यह एक भयंकर विराधना है ।
गर्भज या संज्ञी मनुष्य स्त्री के गर्भ में उत्पन्न होते हैं । उन मनुष्यों के पास उनकी शक्ति से अधिक काम करवाने से, मारने से, उनके शरीर के अंगोपांग छेदने से, निकालने से या गर्भपात वगैरह से मनुष्यों के द्रव्य प्राणों के नाशरूप विराधना होती है । कभी - कभी तो लापरवाही से चलते हुए या गाड़ी आदि चलाते हुए मनुष्यों के अंगोपांग को नुकसान पहुंचाने वाली प्रवृत्ति होती है। इसके अलावा, किसी को कषाय उत्पन्न हो वैसा बर्ताव करने से या किसी के मन को ठेस पहुँचाने से उनकी विराधना होती है ।