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इरियावहिया सूत्र . १४५ नहीं जा सकते, फिर भी उनमें चेतना तो होती है । उनके ज्ञान के कुछ अंश अनावरित होते हैं । जिससे उनके शरीर का छेदन । भेदन करने से उन्हें भी दुःख-पीड़ा होती है ।
खुद के स्वार्थ के लिए, अनुकूलता के लिए, जीवननिर्वाह के लिए या परिवार की भौतिक सुविधा के लिए जाने अनजाने में इन जीवों को पीड़ा उत्पन्न की हो, तो वह एकेन्द्रिय संबंधी विराधना है । सचित्त पृथ्वी पर चलते हुए, नमक आदि का उपयोग करते हुए, पानी गिरने से, बिजली, चूल्हा, झूला, पंखा, ए.सी. आदि का उपयोग करते हुए, वनस्पति के ऊपर चलते हुए, उसे काटने आदि में एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है । यह शब्द बोलते हुए ऐसी कोई भी विराधना हुई हो, तो उसे याद करके उसका मिच्छामि दुक्कडं देना है ।
बेइंदिया - स्पर्शेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय इन दो इन्द्रियों वाला जीव । शंख, कोडा, केंचुआ, कृमि, पोरा, मामणमुंडा, झूठन से उत्पन्न होनेवाले जीव वगैरह बेइंद्रिय जीव है । यह जीव स्वेच्छा से हलन - चलन कर सकते हैं, इसलिए ये त्रस जीव कहलाते हैं । वर्तमान में अज्ञानवश अथवा स्वाद की लोलुपता के कारण, बासी खाने से, ब्रेड या टीन फूड खाने से, दहीं और दाल आदि खाने में प्रीझर्वेटिव डाले हुए सोस, शरबत आदि खाने से बेइन्द्रिय जीवों की बहुत हिंसा होती है तथा पानी के संग्रह से पोरा वगैरह जीवों की, खेती-बाड़ी करते 3. मनुस्मृति में भी कहा गया है -
अन्तः संज्ञाः भवति एते सुखदुःख समन्विताः । अर्थात् ये वृक्षादि (वनस्पतियां) सुख और दुःख से युक्त अन्तरिक संवेदनावाले होते हैं। इसी वाक्य से प्रेरित होकर डो. जगदीशचन्द्र बोझ ने इसे परखने के लिए एक यन्त्र विकसित किया। उसमें सुखी आदमी की तरंगों को रेकार्ड किया और दुःखी आदमी के तरंगों को भी रेकोर्ड किया। फिर एक मुरझाये हुए या जिसकी डाल काटी गई हो ऐसे पेड़ से उसे लगाया तो देखा कि उसकी भी तरंगें ठीक वैसी ही थी जैसी दुःखी आदमी की तरंगे। फिर एक खूब हरे वृक्ष पर लगाया तो देखा कि उसकी तरंगे सुखी आदमी की तरंगों जैसी थीं । इस प्रकार उन्होंने वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध किया कि वनस्पतियों में भी जीव होता है । इससे जैन परम्परा में मान्य वनस्पति कायिक जीवों की भी सिद्धि हो गई।