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________________ १४४ सूत्र संवेदना अंतःकरणपूर्वक क्षमा माँगता हूँ और पुनः ऐसा न हो, वैसी सावधानी रखने का संकल्प करता हूँ ।' इस पद से चौथी विशेष हेतु संपदा पूर्ण होती है । गमनागमन करते हुए विशेष प्रकार से कौन-कौन सी विराधना हुई है, यह इस पद में बताइ गई हैं । इसलिए इस पद को विशेष हेतु संपदा अथवा 'इतर' हेतु संपदा भी कहते हैं। ५. संग्रह संपदा : जे मे जीवा विराहिया : मुझसे जिस जीव की विराधना हुई हो । शरीर धारणकर जो जीता है उसे यहाँ जीव कहा जाता है । शरीर के कारण इन जीवों का छेदन, भेदन, ताडन, तर्जन हो सकता है । ये क्रियाएँ उनके दुःख का कारण बनती हैं । अतः वह विराधना मानी जाती है । एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की जो कोई भी विराधना हुई हो, उसको याद करके इन शब्दों द्वारा मिच्छा मि दुक्कडं देना है । यहां पाँचवीं संग्रह संपदा पूर्ण हुई । यह पद समस्त जीव विराधना का संग्रह करनेवाला होने के कारण इसे संग्रह संपदा कहते हैं । ६. जीव संपदा : साधारणतया, मुझसे जिस किसी भी जीव की विराधना हुई हो, ऐसा कहकर, उन जीवों को बताते हैं - एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया : एक इन्द्रियवाले, दो इन्द्रियोंवाले, तीन इन्द्रियोंवाले, चार इन्द्रियोंवाले एवं पाँच इन्द्रियोंवाले जीव जिनकी मुझसे विराधना हुई हो । एगिदिया - स्पशेन्द्रिय नाम का एक ही इन्द्रियवाला जीव पृथ्वीकाय, अपवाय, तेऊकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय : एकेन्द्रिय जीव ऐसे पाँच प्रकार के होते हैं । इन जीवों की चेतना अस्पष्ट होती है । स्थावर होने के कारण वे अपनी इच्छानुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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