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इरियावहिया सूत्र
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संकमणे - अर्थात् ओस से मकड़ी तक के जीवों की आक्रमण द्वारा हुई विराधना ।
'संक्रमण' शब्द में 'सम्' + 'क्रम्' धातु का प्रयोग है । एक वस्तु आगे पीछे हुई हो, एक स्वरूप में से दूसरे स्वरूप में बदल जाए, एक स्थिति में से दूसरी स्थिति में परिवर्तित हो जाए, ऐसा अर्थ 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'क्रम' धातु का होता है और ऐसे ही भाव को दर्शानेवाली अन्य क्रियाएँ जैसे कि उल्लंघन करना, ऊपर से कूदना, प्रवेश करना, परिवर्तन करना वगैरह अर्थ में भी इस धातु का प्रयोग होता है । यहाँ उल्लंघन करना याने ऊपर से होकर निकल जाने के अर्थ में इस 'संक्रम' धातु का प्रयोग हुआ है अर्थात् इन जीवों के ऊपर से कूदकर निकलने में या उनके ऊपर चलने आदि से जो विराधना हुई हो उसका प्रतिक्रमण करना है । आगे दर्शाया जाएगा कि 'एगिंदिया' वगैरह भेदों से सभी जीवों का समावेश हो जाएगा फिर भी 'हरियक्कमणे' वगैरह पदों द्वारा अलग अलग जीवों की विराधना बतायी गई है, वह उन उन जीवों की मन में अलग से उपस्थिति करने के लिए की होगी, ऐसा लगता है ।
इस संपदा के प्रत्येक पद को बोलते हुए जीवों को जिस-जिस तरीके से नुकसान पहुँचाया हो, उसकी स्मृतिपूर्वक सोचना चाहिए कि,
'ये जीव भी मेरे जैसे ही हैं, जैसे मुझे दुःख इष्ट नहीं है, वैसे इन जीवों को भी दुःख पसंद नहीं है, फिर भी स्वार्थवश खुद के सुख - चैन की खातिर मैंने अनेक बार इन जीवों को दुःख दिया है, कितनी बार उनकी उपेक्षा की है, मैं नीचे देखकर नहीं चलूँगा, तो बिचारे ये निर्दोष जीव मर जाएँगे, ऐसा विचार मात्र मुझे नहीं आया। चलते समय अगर मुझमें करुणा बुद्धि होती तो, मुझसे ऐसी दूसरों को दुःख देनेवाली अनुचित प्रवृत्ति नहीं होती। आज इन सब विराधनाओं को याद करके