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सूत्र संवेदना
जिज्ञासा : झरने, जलाशय या वनस्पति वगैरह के प्राकृतिक सौंदर्य देखने में पाप क्यों लगता है कि, जिससे ‘मिच्छा मि दुक्कडं' देना पड़े ?
तृप्ति : कुदरती सौंदर्य के रूप में हम विविध आकृतिवाली वनस्पतियों और पानी के स्थानों को देखते हैं । इन दोनों स्थानों में अनंत या असंख्यात एकेन्द्रिय जीव होते हैं । इन जीवों को उन-उन स्थानों में स्थावर नामकर्म के उदय के कारण (मजबूरी से) रहना पड़ता है । इसके अतिरिक्त जो जो (पहाड़ी स्थान आदि) घुमने फिरने-पर्यटन के स्थान हैं, वहाँ उनकी प्रदर्शनी के लिए वनस्पति को बार बार काटते हैं, छाटते हैं, नई नई उगाते हैं, खराब वनस्पतियों को जड़ से उखाड़ फेंकते हैं । अनेक लोग उनके ऊपर कूदते हैं, चलते फिरते हैं, ऐसी हर एक क्रिया से इन एकेन्द्रिय जीवों को त्रास होता है । ऐसे सौंदर्य में आनंद मानने से उन उन जीवों को होनेवाली पीडा की अनुमोदना होती है। इन दृश्यों को लोग देखने आएँगे, इस हेतु से धन के लोभी वनस्पतिकाय आदि को पीड़ा देते हैं । प्राकृतिक सौंदर्य को आसक्ति से देखने में उन पाप क्रियाओं को करवाने का पाप भी लगता है एवं उन जीवों के ऊपर चलने - फिरने वगैरह से करने का पाप भी लगता है, इसलिए ऐसे कुदरती सौंदर्य को देखकर आनन्द माना हो, तो उसका भी ‘मिच्छा मि दुक्कडं' देना चाहिए ।
मक्कडा-संताणा - मकड़ी के जाले । मकड़ियों की जालें नष्ट कीये हो, घर की सफाई करते हुए मकड़ियों के घर टूटे हों, तो उस विराधना का भी स्मरण करके उससे मलिन बनी आत्मा को शुद्ध करना है ।
इस पद को बोलने के साथ याद आना चाहिए कि 'मुझे सूक्ष्म रीति से भी ऐसे किसी भी प्रकार के जीव की विराधना नहीं करनी है । ऐसी विराधना हुई हो, तो उसके प्रति जुगुप्सा करनी है एवं विराधना न हुई हो तो इन शब्दों द्वारा अहिंसा के परिणाम को दृढ़ करना है, जिससे भविष्य में सावधानी रहे एवं चलते चलते ऐसी विराधना न हो ।