SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इरियावहिया सूत्र १३९ १. अतिक्रम : आराधना के भंग के लिए कोई प्रेरणा करे, तब अगर उसका निषेध न किया जाय, तो अतिक्रम है । २. व्यतिक्रम : विराधना के लिए तैयारी व्यतिक्रम है । ३. अतिचार : जिसमें कुछ अंश में दोष का सेवन होता हो, वह अतिचार है । ४. अनाचार : जहाँ संपूर्णतया आराधना का भंग होता हो, जिसमें आराधना का कोई भी तत्त्व न रहता हो, वह अनाचार है । साध्वाचार या श्रावकाचार के विषय में हुई विराधना को याद करते हुए अत्यंत उपयोग से यह पद बोला जाये तो अनाभोग से, अचानक या प्रमाद आदि के कारण हुई किसी भी विराधना से पीछे हटने का भाव पैदा होता है । मुनि भगवंत पाँच महाव्रत एवं श्रावक १२ अणुव्रतों की आराधना करते हैं । इन व्रतों की आराधना करते हुए हिंसा, झूठ, चोरी आदि कोई भी पाप हो तो विराधना होती है । इस सूत्र में मात्र हिंसाजन्य विराधना का ही प्रतिक्रमण है, ऐसा उपरी दृष्टि से लगता है, परंतु सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो समझ में आता है कि सर्व व्रतों में मुख्य अहिंसा व्रत है । शेष चारों दोष हिंसा के कारण होने से हिंसा में ही उन सबका समावेश हो जाता है । इसलिए यहाँ सर्व पाप के संग्रहरूप जीवहिंसा को मुख्य मानकर उसको सामने रखकर शुद्धि का क्रम बताया है । T यहाँ दूसरी निमित्त संपदा पूर्ण हुई । इस पद द्वारा आलोचना का कारण बताया गया है । इसलिए यह 'निमित्त संपदा' है । ३. ओघ संपदा : अब साधक जिस विराधना का प्रतिक्रमण करना चाहता है, उस विराधना का कारण बताते हैं । गमणागमणे : जाने या आने में ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy