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सूत्र संवेदना
वास्तविक भाव मेरे हृदय में प्रकट नहीं हो सकेंगे । अब तो जब मुझे गुरु भगवंत ने भी शुद्ध होने की आज्ञा देकर आशीर्वाद दिया है, तब मुझे भी दोषों से मलिन बनी हुई अपनी आत्मा को शुद्ध
करने के लिए विशेष प्रयत्न करना चाहिए।" इस पद की समाप्ति के साथ प्रथम 'अभ्युपगम संपदा' पूर्ण होती है । आलोचना करने की स्वीकृति ही 'अभ्युपगम संपदा' है । इस पद में प्रतिक्रमण करने का स्वीकार किया गया है, इसलिए यह पद अभ्युपगम संपदा है। २. निमित्त संपदा :
अब किसका प्रतिक्रमण करने की इच्छा है, यह बताते हैं । इरियावहियाए विराहणाए : ईर्यापथिकी की विराधना से ।
ईर्यापथ अर्थात् गमनागमन का मार्ग अथवा ईर्या अर्थात् जीवनचर्या - श्रावक अथवा साधु की जीवन चर्या । इसके उपरांत 'धर्मसंग्रह' में ईर्या का अर्थ ध्यान, मौन आदि रूप 'भिक्षुव्रत' किया है । अतः इन शब्दों द्वारा शिष्य मार्ग में चलते हुए विराधना के पाप से अथवा तो श्रावकाचार या साध्वाचार में थोड़ी भी स्खलना हुई हो, तो उससे पीछे हटने की इच्छा गुरु के समक्ष व्यक्त करता है ।
विराधना को समझने के लिए पहले आराधना को समझना जरूरी है । सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग की उपासना करना अथवा संयममार्ग का यथाविध पालन करना ही आराधना है । इस आराधना से विपरीत आचरण विराधना है अथवा विकृत हुई आराधना विराधना है । जिस आराधना में कमी या भूल रही हो, वह विराधना है । विराधना का दूसरा अर्थ प्राणी को दुःख देना = पीडा देना भी है । यहाँ विशेष रूप से इस अर्थ में विराधना का प्रयोग किया गया है । इस विराधना के चार प्रकार हैं ।