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________________ इरियावहिया सूत्र . १३७ यहाँ उल्लेखनीय है कि व्यवहारनय से 'प्रतिक्रमण' शब्द का अर्थ 'पाप से पीछे हटना' होता है, पर निश्चयनय से तो “पाप ही नहीं करना" प्रतिक्रमण है । इसीलिए उपाध्यायजी महाराज ने कहा है कि, 'मूल पदे पडिक्कमणु भाख्यं पाप तणु अण कर, रे' - सीमंधर स्वामी ३५० गाथा का स्तवन ढा. १ पाप करके गुरु के समक्ष उसकी शुद्धि करमा एवं बाद में सावधानी रखना कि पुनः वैसा पाप न हो, यह तो आपवादिक प्रतिक्रमण है । उत्सर्ग मार्ग से तो पाप ही न करना, वह प्रतिक्रमण है । जैसे पैर कीचड़ में पडे तो उसे धोना पड़ता है; परन्तु धोने से बेहतर है कि पैर कीचड़ में पडे ही नहीं ऐसी सावधानी रखनी । उसी प्रकार पाप से आत्मा मलिन होने के बाद प्रतिक्रमण से उसे शुद्ध करने की क्रिया करने से तो पाप ही न हो, वैसा चित्त बनाना ही अच्छा है । इसीलिए उत्सर्ग से, पाप के प्रति जुगुप्सा बनाये रखने एवं पाप ही न हो ऐसी सजगता बनाये रखने के लिए प्रतिक्रमण की क्रिया की जाती है । एक शुभ क्रिया से दूसरी क्रिया के प्रारंभ में जो इरियावहिया करते हैं, वह औत्सर्गिक प्रतिक्रमण में रहने के प्रयत्न रूप है । पूर्व क्रिया में लगे हुए दोष के निवर्तन के लिए जो ईर्या प्रतिक्रमण करते हैं, वह अपवाद प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण करने के बाद पुनः वैसी ही स्खलना न हो, इसके लिए बहुत सतर्क रहना चाहिए । 'मुझसे पुनः यह पाप न हो जाए' ऐसा भाव यदि न हो, तो वह प्रतिक्रमण अपवाद से भी प्रतिक्रमण नहीं रहता । इस पद का उच्चारण करते समय सोचना चाहिए कि, "दीवार शुद्ध किए बिना अगर उस पर चित्र बनाया जाए, तो वह चित्र निखरता नहीं है, वैसे ही मेरे हृदय को पैर, दुर्भाव, अरुचि आदि मलिन भावों से मुक्त किए बिना यदि मैं सामायिकादि करूँगा, तो मेरी ये क्रियाएँ भी निखर नहीं पाएंगी अर्थात् उसके
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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