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सूत्र संवेदना
स्वरूप गुरु की आज्ञा के मुताबिक शिष्य करना चाहता है; ये बात ‘इच्छं' शब्द से जानी जाती है, यदि आज्ञा का इस तरह से स्वीकार न करें एवं मौनपूर्वक कार्य का प्रारंभ करे तो अविनय होता है एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में अविनय से की हई क्रिया कभी भी फलवती नहीं बनती । १. अभ्युपगम संपदा :
गुरु की आज्ञा मिलने के बाद प्रतिक्रमण करने की शुरुआत करता हुआ शिष्य कहता है कि, इच्छामि पडिक्कमिउं : मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ ।
गुरु द्वारा आज्ञा प्राप्त होते ही शिष्य परम उत्साहित होकर उपयोगपूर्वक ईर्यापथ का प्रतिक्रमण करने के लिए तत्पर बनकर कहता है कि, 'हे भगवंत सामायिक व्रत लेने के पहले मुझसे जो भी विराधना हुई हो, उससे मैं वापस लौटने का प्रयत्न करना चाहता हूँ ।' इस प्रकार साधक स्वयं के द्वारा हुई जीव विराधना के प्रति अपने मन में नापसंदगी, जुगुप्सा, घृणा
आदि भाव पैदा करता हैं । एक पाप के प्रति पैदा हुए इन जुगुप्सा आदि भावों से साधक में सर्व पापों से हटने का परिणाम पैदा होता है ।
प्रति = वापस एवं क्रमण = लौटना । इस प्रकार प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ 'वापस लौटना' होता है । अपनी की हुई स्खलना से वापस लौटना 'प्रतिक्रमण'' है । जीव का मूल स्वभाव अपने ज्ञानादि गुणों में रहने का है अथवा ज्ञानादि गुणों के पोषक ध्यान-मौनादि आचारों का सेवन है । इस मूल स्वभाव को छोड़कर यदि आत्मा विषयों या कषायों रूप परभाव में चली गई हो, तो वहाँ से आत्मा को अपने मूल स्वभाव में लाने की क्रिया को प्रतिक्रमण कहते हैं । इन शब्दों द्वारा शिष्य ऐसा प्रतिक्रमण करने की अपनी इच्छा प्रगट करता है । 1. स्वस्थानात् यत् पास्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ।।
- हरिभद्रसूरिकृत आवश्यक टीका