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इरियावहिया सूत्र . १३५ अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया ! .
अभिहताः', वर्तिताः', श्लेषिताः', संघातिताः', संघट्टिता:', परितापिताः, क्लामिताः", अवद्राविता:', स्थानात् स्थानं संक्रामिताः', जीवितात् व्यपरोपिताः",
उन्हें लात से मारें हों, धूल से ढंके हों, जमीन पर मसले हों, इकट्ठे किए हों, स्पर्श किया हो, कष्ट पहुँचाया हो, दुःख पहुँचाया हो, भयभीत किया हो, एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखे हों, जीवन से अलग किया हो (उनको मार डाला हो)।
तस्स मि दुक्कडं मिच्छा । तस्य मे दुष्कृतम् मिथ्या ।
उन संबंधी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । विशेषार्थ : इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इरियावहियं पडिक्कमामि? : हे भगवंत ! आप मुझे इच्छापूर्वक आज्ञा दें । मैं ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करूँ ?
ईरियावहिया की क्रिया का प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम शिष्य गुरु भगवंत के पास अतिनम्र भाव से आज्ञा माँगता है कि, आप विवशता से नहीं, परन्तु इच्छापूर्वक मुझे आज्ञा दीजिए कि, मैं ईर्यापथ की विराधना का प्रतिक्रमण करूँ? गुणसंपन्न गुरु उत्तम क्रिया के लिए हमेशा योग्य अवसर जानकर शिष्य को उचित आज्ञा देते ही हैं, तो भी उत्तम शिष्य अपने विनयगुण की वृद्धि के लिए कोई भी कार्य प्रारंभ करने से पहले सदैव गुरु से आज्ञा माँगता है ।
नम्र भाव से प्रतिक्रमण की आज्ञा माँगते हुए विनीत शिष्य के पूछे प्रश्न के उत्तर में गुरु कहते हैं कि, 'पडिक्कमेह' - तुम प्रतिक्रमण करो । इच्छं : मैं चाहता हूँ । आपकी आज्ञा मुझे प्रमाण है। _ 'इच्छं' कहकर शिष्य ऐसा बताता है कि आपकी आज्ञा शिरोधार्य है । अर्थात् गुरु की आज्ञा को वह स्वीकार करता है । इस प्रकार गुरु के 'पडिक्कमेह' शब्द द्वारा जो प्रतिक्रमण करने के लिए सम्मति मिली थी, उस