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द्वेष के भाव कमजोर होते हुए जीव की वीतराग चेतना सचेत होती है एवं ऐसी चेतना जो संवेदन करती है, वह तत्त्व संवेदन होता है। तत्त्व संवेदन कषाय रहित होता है। आत्मा के गुणों की बात आने पर या उसके प्रकटीकरण के समय जीव जो संवेदन अनुभव करता है, वो कर्मों की बहु निर्जरा एवं सबल संवर का कारण बन सकता है। उस समय जीव यदि किसी कर्म का आश्रव करता है, तो ज्यादातर पुण्यानुबंधी पुण्य कर्म का ही होता है।
अपने प्रत्येक सूत्र के उच्चारण के साथ क्रिया करते समय यदि आराधक ऐसा तत्त्व संवेदन करता रहे तो शीघ्रातिशीघ्र मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ता जाए। जीव जब संपूर्णतया वीतराग अवस्था को प्राप्त करता है, उसके बाद वो जो संवेदन अनुभव करता है उसमें कोई भाव नहीं होता। उसमें तो केवल अस्तित्व का आनंद होता है। पर ये बात तो अन्तिम परमात्म दशा की है।
अपना समग्र अध्यात्म मार्ग बहिरात्म दशा में से अंतरात्म दशा में आने के लिए है एवं तत्त्व संवेदन करते-करते एकदम वीतराग अवस्था-शुद्ध अवस्था तक पहुँचने के लिए है। यह मार्ग तत्त्व संवेदन सहित सूत्रार्थ एवं क्रिया द्वारा पार किया जा सकता है। इसलिए सूत्र संवेदना का अति महत्त्व है। तत्त्व संवेदन बिना की हुई अपनी सारी धर्मक्रियाएँ निष्प्राण द्रव्यक्रियाएँ ही बनी रहती हैं एवं सकल कर्मों का क्षय कर सके ऐसी ऊर्जा उससे उत्पन्न हो नहीं सकती।
अपनी प्रत्येक धर्म क्रिया के साथ संलग्न हुए सूत्रों का यदि हम अर्थ समझकर, विधिवत् उच्चारण करें एवं उनके साथ अपना भावोल्लास जाग्रत होता जाए एवं वह क्षणिक नहीं रहते हुए, लंबे समय तक टिका रहे तथा इसके अतिरिक्त उसकी परंपरा बनी रहे उस तरह प्रयत्न करें तो तत्त्व संवेदन स्थिर हो एवं ऐसा तत्त्व संवेदन आत्मा को मुक्तिधाम तक पहुँचाए बिना ना रहे। साध्वी श्री प्रशमिताश्रीजी ने इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर 'सूत्र संवेदना' लिखने का भगीरथ कार्य हाथ में लिया है एवं उसके परिणाम