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बिना उनके प्रति आदर भी कहाँ से होगा ? जहाँ आदर ही न हो वहाँ भावोल्लास की बात ही कहाँ रही ? भावोल्लास बिना तृत्व संवेदन नहीं एवं तत्त्व संवेदन बिना क्रिया केवल द्रव्य-क्रिया बनकर रह जाती है। ऐसी भाव-विहीन क्रिया या सूत्र का तोता रटन या जप कर्मों की कितनी निर्जरा कर सके एवं गुण प्राप्ति में कितना सहायक हो सकता है ?
साध्वी प्रशमिताश्रीजी उनके लेख में प्रथम प्रत्येक सूत्र का परिचय कराती हैं, बाद में मूल सूत्र बताती हैं, उसके बाद सूत्र का अन्वय, छाया
और शब्दार्थ करती हैं। इसके बाद उसका विशेष अर्थ करती हैं। उसमें वे उससे संबंधित बहुत सी बातों का संदर्भ देती हैं जिससे वाचक आराधक सूत्र को, उसके शब्दार्थ को एवं विशेषार्थ को समझ सके। इस प्रकार भावित आराधक यदि सूत्र बोलकर पूरी क्रिया करे एवं उसके साथ उसका तत्त्व संवेदन करता जाए तो ही पूरी क्रिया अमृत क्रिया बनती है। परिणाम स्वरूप साधक को गुणप्राप्ति होती है एवं अनंत निर्जरा का लाभ मिलता है।
बात का सार इतना ही है कि तत्त्व संवेदन बिना की हुई क्रियाओं का फल सामान्य एवं अल्प होता है। इसलिए हमें तत्त्व संवेदन की बात को जरा स्पष्ट कर लेना चाहिए। संवेदन को तो अधिकतर लोग समझते हैं एवं पल-पल अनुभव करते हैं। संवेदना चेतना का, जीव का गुण है। जड़ को संवेदन नहीं होता। जीव मात्र सानुकूल परिस्थिति में सुखद संवेदन अनुभव करता है एवं प्रतिकूल विषयों में या संयोगों में दुःख की अनुभूति करता है। तभी तो प्रत्येक जीव सानुकूल संवेदन मिले तो उसकी तरफ जाता है एवं प्रतिकूल संवेदन से दूर रहना चाहता है। जीव की संवेदन की यह परिणति राग और द्वेष के घर की होती है। जीव जहाँ तक बहिरात्मा दशा में होता है, वहाँ तक उसे रागवाले विषयों में सुख का संवेदन होता है एवं द्वेषवाले विषयों के प्रति दुःख का संवेदन होता है।
जीव जब अन्तरात्म दशा में आता है या आने की तैयारी में होता है तब उसे इन्द्रियों के विषयों का संवेदन इतना सुखद या दुःखद नहीं लगता। राग