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नाश करता है। अतः वंदन करनेवाले साधक के लिए ऐसा आदर ही गुण प्राप्ति का कारण बनता है ।'
अब अगर खमासमण बोलते समय क्षमादि विशिष्ट गुणवाले गुरु के प्रति आदर ही न हो एवं आदर बिना ही सूत्र को तोते की तरह रटा जाए तो वो गुण प्राप्ति के अवरोधक कर्मों का नाश करने के लिए सक्षम नहीं बनता एवं साधक यह सूत्र बोलकर कितनी ही बार खमासमण देते हुए भी खास लाभान्वित नहीं हो सकता।।
साध्वीजी इसी सूत्र पर विवेचन करते हुए आगे लिखती हैं - 'हे क्षमाश्रमण !' इन शब्दों का प्रयोग करते ही क्षमादि दसों यतिधर्म का सेवन करते हुए विशिष्ट गुण संपन्न व्यक्ति को मैं इच्छापूर्वक वंदन करता हूँ', वैसा भाव उल्लसित होना चाहिए। जिससे साधक गुण के अभिमुख होता है एवं वंदन काल में उसके कषाय शांत होते हैं । फलतः वंदन करने से क्षमाभाव को रोकनेवाले कर्मों का भी नाश होता है।'
अब यदि इस सूत्र के बोलनेवाले व्यक्ति को क्षमादि दस गुणों का ख्याल ही न हो एवं उनके प्रति आदर ही न हो तो उसका मन ऐसे भावों से उल्लसित नहीं होगा एवं क्षमादि गुणों को आवृत्त करनेवाले कर्मों का खास क्षय भी नहीं होगा। ___ लेखिका इसी बात को आगे बढ़ाके कहती हैं - ‘इच्छामि खमासमणो... बोलते हुए मोक्षमार्ग के उपकारी क्षमादि गुणयुक्त पुरुष हृदयस्थ हों, उनके प्रति हृदय में अत्यंत बहुमान हो एवं ऐसे गुण प्राप्त करने की इच्छा हो वैसी आत्मा को ही यह पद बोलते समय क्षमाभाव को रोकनेवाले कर्मों का नाश वगैरह उपर कहे हुए लाभ होने की संभावना है, अन्य को नहीं ।' ।
इस बात का मर्म या अर्थ यह होता है कि जो केवल भगती गाड़ी की तरह सूत्र बोलकर वंदन करता है, उसे वर्षों तक वंदन की क्रिया करने के बाद भी खास लाभ नहीं होता। इस सूत्र में आए हुए शब्दों का अर्थ समझे बिना उनके पीछे गर्भित गुणों का ख्याल नहीं आयेगा। गुणों का ख्याल आए