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सूत्र संवेदना
तक की हुई भूल के प्रति लापरवाही का भाव है, तब तक उस भूल के लिए कितनी भी बार माफी मांगी जाए, तो भी वह भूल बार-बार होती रहेगी । इसलिए माफी मांगते समय हृदय में मुझसे यह भूल पुनः होनी ही नहीं चाहिए, ऐसा दृढ़ निर्णय करना चाहिए । "मि' = मर्यादा में अर्थात् पुनः चारित्र के आचारों में स्थिर बनकर। जिस मर्यादा को तोड़कर भूल हुई हो, उस मर्यादा में पुनः आए बिना पाप का प्रायश्चित्त संभव नहीं है । जैसे कि बड़ों के साथ असभ्य व्यवहार द्वारा अविनय हुआ हो या अनुचित वचन प्रयोग हुआ हो तो सर्वप्रथम उनके विनय की मर्यादा में आ जाना चाहिए और उसके बाद ही माफी मांगनी चाहिए अथवा तो कदाचित् ईर्यासमिति के पालन का भंग हुआ हो, तो काया को पुनः ईर्यासमिति से युक्त बनाने के पश्चात ही माफी मांगी जा सकती है । प्रस्तुत में गुरु के प्रति कोई भी अनुचित बर्ताव हुआ हो याने के हम अपनी मर्यादा को चूक गए हों तो पुनः मर्यादा में आकर माफी माँगे । इस प्रकार से माफी के वे शब्द वास्तविक भाव पैदा कर सकते हैं । 'दु' = दुर्गच्छा : मैं अपनी पापी आत्मा की दुर्गंच्छा निंदा करता हूँ ।
चारों अक्षरों का संमिलित अर्थ - काया से और भाव से नम्र बनकर, चारित्र की मर्यादा में रहा हुआ मैं पुनः दोषों का सेवन न
हो, ऐसे संकल्पपूर्वक अपनी आत्मा की निंदा करता हूँ । यह सब तभी संभव है, जब अपनी भूल के प्रति घृणा होती है, मैंने बहुत ही अनुचित किया है, ऐसा एहसास होता है, उस भूल के कारण हमें अपनी
आत्मा हीन प्रतीत होती है, अपने आप को हम निंदनीय मानते हैं, हमारे हृदय में अपने लिए धिक्कार या तिरस्कार की भावना उत्पन्न होती है ।
'क' = किया हुआ - अपने किए हुए पापों का मैं स्वीकार करता हूँ ।
इन सब भावों के अलावा एक महत्त्वपूर्ण भाव यह है कि, 'मैंने यह पाप किया है, ऐसा एकरार होना चाहिए । बहुत बार निमित्त को दोषी मानकर