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________________ अब्भुट्ठिओ सूत्र . १२७ हम अपनी भूल का स्वीकार नहीं करते । यदि भूलों से मुक्ता होना हो, तो पहले निर्णय करना चाहिए कि मैंने भूल की है, इसमें दूसरों का दोष नहीं है, यह मेरा ही दोष है । कोई भले मेरे साथ कैसा भी बर्ताव करे, मुझे जैसे के साथ तैसा नहीं बनना चाहिए । मुझे तो मेरे मन-वचन-काया को संयमित ही रखना चाहिए । ऐसे भावपूर्वक भूल का स्वीकार हो, तो भूल के प्रति जुगुप्सा उत्पन्न होगी, परंतु यदि स्वीकार के बजाय, बचाव होगा, बहाने होंगें तो भूल का पुनरावर्तन होता ही रहेगा ।' ' 'ड' = डयन - मैं डयन करता हूँ अर्थात् उपशम द्वारा उल्लंघन करता हूँ। जिस कषाय के अधीन होकर भूल का सेवन हुआ हो, उस कषाय को शांत करके 'मिच्छामि दुक्कडं' माँगना है । उपशमभाव को प्रकट कर उस भूल का उल्लंघन करना है । भूल के मूल को ही उखाडने से, बार-बार भूल होने की सम्भावना का नाश हो जाएगा । ऐसे बोधपूर्वक ‘मिच्छामि दुक्कडं' बोलते हुए साधक अपने अपराधों को याद करके, अतिनम्र बनकर सोचता है कि, "गुणवान गुरु भगवंत की आशातना करके मैंने बहुत ही गलत किया है, उससे मैंने अपने अनंत भावी जन्मों को बिगाडा है, अपने भव की परंपरा बढाई है । किसी भी प्रकार से इस अपराध से हटकर, अब मुझे मर्यादा में आ जाना चाहिए । पुनः पुनः यह अपराध न हो जाए, इसके लिए सावधान रहना चाहिए, अंदर पडे हुए मानादि के संस्कारों का नाश करने का यत्न करना चाहिए । मानादि के संस्कार नाश होंगे, तो ही मैं गुरु भगवंत की आशातना से बचकर योग्य विनय कर पाऊँगा । विनय धर्म का मूल है, इसलिए भावपूर्वक मिच्छामि दुक्कडं देने से विनय का अध्यवसाय ज्वलंत बनेगा । तभी मेरी धर्मक्रियाएँ सफल बनेंगी।” । जब शिष्य 'मिच्छा मि दुक्कडं' बोलता है, तब गुरुदेव भी उससे क्षमापना मांगते हुए कहते हैं कि,
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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