SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० सूत्र संवेदना सामान्य से तो विनीत शिष्य आलाप - संलाप में सावधान रहकर उचित तरीके से ही बोलता है । तो भी कभी व्यग्रता से अनुपयोग से या सहसा भूल होना संभव है, इन शब्दों द्वारा उनका 'मिच्छामि दुक्कडं' देने से शिष्य बोलने - चलने में विशेष यत्नवाला बनता है एवं उसका विनय उत्तरोत्तर बढ़ता है। उच्चासणे, समासणे, : ऊँचे या समान आसन में बैठने से । विनयसंपन्न शिष्य हमेशा बाह्य रीति से भी गुरु का बहुमान रखने का प्रयत्न करता है । इसलिए वह गुरु से नीचे और अल्प मूल्यवाले आसन पर ही बैठता है, फिर भी कभी-कभी प्रमाद से, अनजाने में गुरु से ऊँचे या समान आसन ऊपर बैठने रूप जो अपराध हुआ हो, तो इस पद द्वारा शिष्य उसकी क्षमा माँगता है । अंतरभासाए, उवरिभासाए, : बीच में बोलने या अधिक बोलने में । गुरु किसी के साथ बात करते हों, तो बीच में बोलना अंतरभाषा है एवं गुरु जो कहें उस बात को बढ़ाकर सामनेवाले व्यक्ति को कहना उवरिभाषा है, ये दोनों करने से गुरु का जो अविनय हुआ हो, उसकी इस पद से क्षमायाचना करनी है । 44 गुणवान शिष्य जब गुरु भगवंत किसी के साथ बातचीत करते हों, तो कभी भी बीच में नहीं बोलता एवं गुरु की प्रतिभा को लेश मात्र भी आँच नहीं लगने देता । फिर भी कभी अनजाने में, अनाभोग से, सहसाकार या मानादि कषाय के अधीन होकर, गुरु भगवंत, जब बात कर रहे हों, तब बीच में बोला गया हो जिसके कारण गुरु को अप्रीति हुई हो अथवा गुरुदेव व्याख्यान या वाचनादि में कोई विषय समझा रहे हीं एवं खुद को उस विषय का ज्ञान अधिक हो तो शिष्य अपने ज्ञान के मान ! कारण, 'यह विषय इस प्रकार नहीं, परन्तु इस प्रकार है, अथवा इस विषय में इतना ही नहीं है अभी और विस्तार है', ऐसा कहकर
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy