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सूत्र संवेदना
से वहोराना, साधु को बिचारा-दुःखी मानकर देना, ये सब कार्य गुरु के लिए अप्रीति उत्पन्न करनेवाले है। गुरु भगवंत तो क्षमा और सहनशीलता की मूरत होते हैं, उनको तो ऐसे निमित्तों से कुछ हो या न भी हो, पर श्रावक के लिए तो ऐसे सब कार्य गरु की आशातना रूप ही हैं । अतः यह पद बोलते हुए श्रावक को ऐसे अपराधों की माफी मांगनी ज़रूरी है ।
विणए, वेयावछे, : विनय एवं वैयावच्च के विषय में ।
गुरु के गुणों के प्रति अंतरंग बहुमान होने के कारण साधक गुरु भगवंत के आने पर सामने जाए, अंजली जोड़कर प्रणाम करें, आसन प्रदान करें, गुरु खड़े हो तो स्वयं खड़े हो, गुरु के बैठने के बाद बैठे आदि अनेक प्रकार का विनय रखें, परन्तु कषाय की अधीनता से या प्रमादादि दोषों से इस प्रकार का विनय न किया हो एवं किया हो तो भी जैसे तैसे किया हो अथवा बाह्य से पूर्ण विनय करते हुए अंतरंग से उनके प्रति बहुमानभाव की वृद्धि हो, उस तरह न किया हो, तो वे सब क्रियाएँ विनय विहीन कहलाती हैं । विनय के विषय में हुए ऐसे अपराधों की इस पद द्वारा माफी मांगी जाती है।
गुरु के लिए आहार-पानी लाकर देना, शरीर संबंधी शुश्रूषा करना, पैर या सिर की पीड़ा के निवारण के लिए दबाना, चम्पी करना या मर्दन आदि करना वैयावच्च के विविध प्रकार हैं । ऐसी वैयावच्च प्रमादादि से न की हो, या की हो तो उनको अनुकूल हो ऐसे न की हो, अथवा वैयावच्च करते हुए कोई आशंसा रखी हो, कोई प्रतिकूलता उत्पन्न की हो, गुरु भगवंत को कोई शारीरिक तकलीफ है या नहीं उसकी जाँच न की हो, उसकी जानकारी होने के बावजूद योग्य वैद्य आदि की व्यवस्था न की हो, रात में गुरु भगवंत की विश्रामणा करने का अपना कर्तव्य न निभाया हो । गुरु भगवंत ने वैयावच्च संबंधी कोई कार्य कहा हो तो उसको उत्साह से नहीं पर मजबूरी से पूर्ण किया हो इत्यादि सब वैयावच्च संबंधी आशातनाएँ हैं, इन शब्दों को बोलते हुए उन आशातनाओं को ध्यान में रखकर क्षमा माँगी जाती है ।