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सूत्र संवेदना
हो वैसे बहुत से कार्य मैंने किए हैं । हे दयासागर ! मेरी भूलों को भूलकर आप सदा मुझ पर वात्सल्य रखिएगा ।”
अब सबसे पहले आहार- पानी इत्यादि अलग-अलग कार्यों द्वारा गुरु से जो अप्रीतिकर व्यवहार किया हो, उसकी माफी माँगी जाती है ।
जं किंचि अपत्तियं, परपत्तिअं : जो कोई अप्रीतिकर या विशेष अप्रीतिकर व्यवहार हुआ हो ।
यहाँ अप्रीति या विशेष अप्रीति दो तरीकों से लेनी है; एक तो शिष्य के अयोग्य कार्य से गुरु को जो अप्रीति हुई हो वह एवं दूसरी अपनी अयोग्यता के कारण गुरु के किसी प्रकार के व्यवहार से गुरु के विषय में शिष्य को जो अप्रीति हुई हो । ये दोनों प्रकार की अप्रीतियाँ जब विशेष बनती हैं, उसे पर- अप्रीतिकर कहते हैं ।
तब
इसके अतिरिक्त, पर- अप्रीतिकर का दूसरा अर्थ परहेतुक अप्रीति भी होता है । जैसे कि, पर के निमित्त से गुरु को शिष्य के ऊपर अप्रीति हुई हो अथवा पर के निमित्त से शिष्य को गुरु के प्रति अप्रीति हुई हो ।
शिष्य समझता है कि गुरु को थोड़ी भी अप्रीति हो, ऐसा बर्ताव व्यवहार हमें कभी नहीं करना चाहिए । गुरु की चाहे कितनी भी कठोर आज्ञा हो, तो भी उसका पालन करते समय किंचित् भी द्वेष नहीं करना चाहिए । फिरभी कषाय की अधीनता से, आहार- पानी आदि विषयों में अपने से गुरु को जो लेशमात्र भी अप्रीति हुई हो, तो उन्हें इन शब्दों द्वारा “मिच्छा मि दुक्कडं" दिया जाता है ।
यह वाक्य बोलते हुए गुरुभगवंत के प्रति अप्रीतिकर या विशेष अप्रीतिकर जो कुछ हुआ हो, तो उसको याद करके सोचना चाहिए कि,
“गुरु भगवंत ने जो उपकार किया है, उसके बदले में मैं और क्या कर सकता हूँ - अरे ! सिर्फ गुरु भगवंत को प्रसन्न रख सकूँ तो भी बहुत है। उन पूज्य ने मुझ पर कितने उपकार किए हैं, फिर