________________
११४
सूत्र संवेदना
कौन से अपराध हुए हैं, उनको याद करता है एवं उन उन अपराधों की क्षमापना द्वारा अपनी आत्मा को निर्मल बनाने का प्रयत्न करता है ।
इस वाक्य का उच्चारण करते हुए गुरु भगवंत के प्रति अतीव आदर धारण कर नतमस्तक शिष्य को गुरुदेव से बिनती करनी चाहिए,
“हे भगवंत ! आपके प्रति हुआ मेरा हरेक अपराध मेरे आत्म कल्याण में बडा अवरोधक है । ऐसा जानते हुए भी कक्षायों की पराधीनता के कारण आज भी मुझसे आप पूज्यों की अनेक तरह से आशातना हो गई है । जब तक मैं उन अपराधों की क्षमा नहीं माँगता एवं जब तक आप मुझे माफ नहीं करेंगे, तब तक मैं अंतरंग शल्यों (काँटों) की चुभन से मुक्त होकर साधना नहीं कर पाऊँगा । अतः हे भगवंत ! अगर आप की इच्छा हो और आपकी अनुकूलता हो तो मुझे आज हुए
अपराधों की माफी माँगने की अनुज्ञा दीजिए।" इस तरह अनुज्ञा माँगनेवाले से गुरु कहते हैं कि, [खामेह : आप खमाओ]
'दिन या रात्रि में हुए अपराधों को खमाने की अपनी इच्छा पूर्ण कर सकते हो ।' गुरु से यह सम्मति सूचक शब्द सुनकर शिष्य के हृदय में अपराधों से दूर होने का जो परिणाम होता है, वह ज्यादा उल्लसित होता है, इसीलिए हर्षपूर्ण होकर शिष्य कहता है, इच्छं : में इच्छुक हूँ । आपकी आज्ञा मुझे प्रमाण है। _ 'इच्छं' कहकर शिष्य ऐसा बताता है कि गुरु की आज्ञा को वह स्वीकार करता है अर्थात्. “वामेह" शब्द द्वारा गुरु ने जो खमाने के लिए आज्ञा दी थी, उस आज्ञा के अनुसार वह करना चाहता है । अब खमाने की प्रक्रिया को प्रारम्भ करते हुए फिर से कहता है ।