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सूत्र संवेदना
मानकर विनय नहीं करता, वह जैसे 'बाँस का फल बाँस का ही नाश करता है, उसी प्रकार अपने हाथों ही अपना अहित करता है । सोते हुए सिंह को जगाने से, सांप के मुख में हाथ डालने से या पर्वत के ऊपर से छलांग लगाने से उतना नुकसान नहीं होता, जितना नुकसान गुरु की आशातना करने से होता है । इसलिए रत्नत्रयी की आराधना करने की इच्छावाले साधक को गुरु को हमेशा प्रसन्न रखने का प्रयत्न करना चाहिए । गुरु के प्रति किया हुआ सूक्ष्म भी अपराध बहुत बड़ी आपत्ति में डाल सकता है । इसलिए जाने अनजाने बिना समझे या कषायादि के अधीन होकर गुरु के प्रति किसी भी प्रकार की आशातना हुई हो, तो उन तमाम अपराधों की गुरु से क्षमा मांगनी चाहिए एवं अपनी आत्मा को निर्मल बनाना चाहिए ।
किए हुए अपराधों को विशेष प्रकार से खमाने के लिए उन्हें निम्नलिखित तीन विभागों में बांटकर, उन सब अपराधों के लिए क्षमा याचना करनी चाहिए ।
१. जंकिंचि से उवरिभासाए तक के पदों द्वारा आहार-पानी-विनयवैयावच्च-आलाप-संलाप या बैठना आदि अलग-अलग कार्यों से गुरु को अप्रीति या विशेष अप्रीति हुई हो, तो उसकी क्षमा माँगी जाती है ।
२. जंकिंचि मज्झ विणय आदि पदों से अपनी जानकारी में हों ऐसे विनयरहित हुए अपराधों की क्षमा माँगी जाती है ।
३. तुब्भे जाणह आदि पैर्दी द्वारा अपनी जानकारी के बाहर के एवं गुरु की जानकारी में आए हों, ऐसे विनयरहित अपराधों की क्षमा मांगी जाती है।
गुरु से अपराधों की क्षमा माँगने पर गुरु प्रसन्न होते हैं एवं प्रसन्न हुए गुरु शिष्य पर कृपा की वर्षा करते हैं । गुरु कृपापात्र शिष्य चारित्र जीवन का भारी बोझ उठाने में समर्थ बनता है एवं शुद्ध चारित्र का पालन कर सकता है । इस तरह क्षमापना द्वारा गुरु का उच्च विनय-विवेक इस सूत्र द्वारा दर्शाया गया है । .