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सूत्र संवेदना कषायों का शमन करके उन्हें धर्म में स्थिर करता हैं, भाव से निराबाध गुरु ही स्वयं एवं अन्यों को तार सकते हैं, ऐसी भक्त की सोच है इसीलिए यहाँ 'निराबाध' शब्द द्वारा द्रव्य एवं भाव से 'गुरुदेव ! आपको कोई पीड़ा तो नहीं है ?' ऐसा पूछा जाता है ।
सुख-संजम-जात्रा निर्वहो छो जी : आपकी संयम यात्रा सुखपूर्वक बीत रही है न ?
गुरु की कठोर साधना देखकर भक्त के हृदय में भक्ति की महक फैलती है । इसीलिए वह आह्लादित हृदय से अलग-अलग तरीके से सुखशाता पूछकर अपनी भक्ति व्यक्त करता है ।
मुनि के लिए संयम यात्रा ही मुख्य है । भक्त को भी गुरु के चारित्र में किसी भी प्रकार की स्खलना न हो, उसकी चिंता रहती है । इसीलिए उसके मुख से ऐसे शब्द निकल जाते हैं । वैसे तो भक्त किसी गुरु के तप-संयम की वृद्धि नहीं करवा सकता, फिर भी तप-संयम के अनुकूल कोई बाह्य आवश्यकता हो, तो वह यथाशक्ति पूर्ण कर सकता है एवं सुविधा द्वारा वह तप-संयम के लिए आवश्यकता अनुसार सहायक बन सकता है । अपनी बाह्य सहायता के कारण गुरु के तप संयम में वृद्धि हुई है, यह बात उनको प्रमोदित करती है, एवं इस तरीके से पृच्छा करने से अपने में भी उन गुणों के लिए सत्त्व खिलता है, जिससे वे गुण प्राप्त होते हैं । इसीलिए ही वह इस रीति से पूछता है ।
स्वामी शाता छे जी ? : हे स्वामी आप शाता में हैं ? हे स्वामी ! आपका चित्त स्वस्थ है ?
"सुहराई" से लेकर यहाँ तक के समस्त प्रश्न भक्त ही गुरु के प्रति भक्ति, साधुजीवन के प्रति अपार अनुराग एवं गुणसंपन्न साधु भगवंत की अनुपम भक्ति का लाभ लेने की इच्छा बताते हैं । इतने प्रश्न सुनकर गुरु भगवंत जवाब देते हैं