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________________ इच्छकार सूत्र १०५ शरीर निराबाध ? : आपका शरीर बाह्य-अभ्यंतर पीड़ा से रहित है ? संयम मार्ग की साधना करते हुए मुनि शरीर के प्रति निरपेक्ष होते हैं, इसलिए शरीर की कोई भी बाधा या पीड़ा प्रायः मुनि को परेशान नहीं करती। तो भी अपने गुरु भगवंत को किसी भी प्रकार की शरीर की बाधा हो, तो उसे मिटाने की इच्छा भक्त साधक को हमेशा रहती है । इसीलिए वह इस प्रकार पूछता है - भगवंत ! आपका शरीर निराबाध है ?' बाधाएँ दो प्रकार की होती हैं - १. द्रव्य बाधा एवं २. भाव बाधा । । द्रव्य बाधा : शरीर में किसी भी प्रकार की व्याधि से हुई पीड़ा द्रव्य पीड़ा है । गुरु भगवंत के शरीर में किसी भी प्रकार की पीड़ा हो तो, वह अपनी निर्जरा तो कर ही पाते हैं; परन्तु भक्त समझता है कि मेरे गुरु भगवंत के शरीर में कोई भी व्याधि होगी, तो वे उपदेश आदि ठीक तरह से नहीं दे सकेंगे। फलतः हम ठीक तरह से धर्म नहीं समझ सकेंगे । यदि हम धर्म नहीं समझे तो हम कर्म की निर्जरा ठीक तरह से नहीं कर पाएँगे । इसलिए धर्मप्राप्ति की इच्छा से तथा संयम के प्रति बहुमान से शिष्य गुरु भगवंत से शरीर संबंधी पृच्छा करता है, जिसे सुनकर गुरु भगवंत भी व्याधि आदि हो, तो उसे कहते हैं । उस वक्त वैद्यादि या औषधादि की आवश्यकता हो, तो वह गुरु को लाकर देता है एवं इस तरीके से गुरु को शरीर से निराबाध करने में शिष्य अपने आप को भी धर्म में सतत संलग्न रख सकता है । गुरु शरीर से निराबाध हों तो वे प्रेरणा का पीयूषपान करवा सकते हैं । २. भाव बाधा : राग-द्वेष-मोह आदि से चिन्तित या कलुषित रहना भावबाधा है । जब साधु भाव से अर्थात् राग-द्वेष-मोह आदि से पीड़ित हों एवं उसके कारण उनका चित्त धर्म में स्थिर न रहता हो, तब वे अपने माँ-बाप जैसे गंभीर श्रावक से अपनी मानसिक स्थिति की भी बात करते हैं । वह श्रावक भी साधु को योग्य सलाह देकर उनकी विषयों की आसक्ति एवं
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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