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सूत्र संवेदना
नहीं होता, बल्कि उपशम के साथ पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग भी होना जरूरी है । अगर पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग न हो तो उपशांत हुए इन विकारों या कषायों के फिर से उदय में आने की संभावना रहती है। इसलिए दोनों क्रियाओं का महत्त्व है । वास्तविक नैषेधिकी क्रिया भी अगर यापनीय हो तो ही होती है । अतः इन दोनों पदों का परमार्थ जिस आत्मा को प्राप्त हुआ होता है, उसकी ही वंदन क्रिया सुयोग्य होती है, अन्य की नहीं ।
मत्थएण वंदामि : मस्तक द्वारा मैं वंदन करता हूँ । 'मस्तक द्वारा वंदन करता हूँ' याने मस्तक सहित पाँच अंगों को झुकाकर मैं वंदन करता हूँ । मस्तक शरीर का उत्तम अंग है । उसको झुकाकर याने सर्व काया से नम्र बनकर आदर और अहोभाव सूचक मुद्रा से वंदन करता हूँ । यह पद बोलते समय मस्तक बराबर जमीन को स्पर्श करना चाहिए,
यह सूत्र बोलकर पंचांग प्रणिपातपूर्वक गुरु भगवंत को वंदन करते हुए सोचना चाहिए,
"मेरा कैसा सद्भाग्य है कि, क्षमादि गुण संपन्न संतपुरुषों के साथ मेरा समागम हुआ है। अगर भावपूर्वक ऐसे महात्माओं को वंदन करूंगा एवं उनके क्षमादि गुणों के प्रति आदर प्रकट करूंगा तो अवश्य ही भव-भवान्तर में भटकानेवाले इन क्रोधादि कषायों से मुक्त होकर मुझे अनंत सुख के कारणभूत क्षमादि गुणों की प्राप्ति होगी ।"