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________________ ९९ खमासमण सूत्र तृप्ति : जब तक मन एवं इन्द्रियाँ संसार के काषायिक भावों से युक्त होती हैं, तब तक साधक गुरु के किसी भी गुण के बारे में सोचने के लिए समर्थ नहीं बन सकता । परन्तु मन एवं इन्द्रियों की उत्सुकताएँ जब थोड़ी शांत होती हैं, तभी उपशमभाव युक्त साधक गुरु को पहचान पाता है। गुरु के गुणों का बोध होने से साधक को वे गुण अपने लिए भी हितकारक लगते हैं । ऐसे गुणों को प्राप्त करने के लिए वह आतुर बनता है । मेरे कषाय ही गुणों की प्राप्ति में बाधक हैं, ऐसा भी वह समझता है । इसीलिए वह सोचता है कि, ‘गुणवान के प्रति आदरभाव ही मेरी गुणप्राप्ति का कारण बनेगा' । इस विचार से ही वंदन फल-साधक बनता है, इसीलिए गुरुवंदन या देववंदन मन एवं इन्द्रियों को उपशम भाव में लाकर याने कि यापनीय सहित ही करना चाहिए । निसीहिआए : नैषेधिकी क्रियापूर्वक (वंदन करता हूँ ।) नैषेधिकी क्रिया सहित वंदन करना अर्थात् संसार के हिंसादि पापों में तथा वंदन क्रिया के अलावा प्रवर्तते मन-वचन-काया के योगों का निषेध कर, सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग कर, मन-वचन-काया को मात्र वंदन क्रिया में ही प्रवृत्त करना .... तब निसीहियाए बोलकर जब वंदन की क्रिया का प्रारंभ करना होता है, मन-वचन-काया अन्यत्र प्रवृत्ति नहीं करते, जिसके कारण आस-पास की प्रवृत्ति, शोर, अन्य का आवागमन वंदन क्रिया में विघ्नभूत नहीं बनते । जिस शरीर में इन्द्रियाँ एवं कषायों के विकारों का स्थान न हो अर्थात् निषेध हो वैसे निर्विकारी एवं निष्पाप शरीर द्वारा वंदन करना चाहिए । जिज्ञासा : यहाँ यापनीय एवं नैषेधिकी दोनों को लेने की क्या आवश्यकता है ? दोनों में से एक ही लिया होता तो न चलता ? तृप्ति : वंदन क्रिया में यापनीय एवं नैषेधिकी दोनों की आवश्यकता है, क्योंकि इन्द्रियों के विकार या कषायों के मात्र उपशम से सच्चा नमस्कार
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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