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खमासमण सूत्र
ब्रह्मचर्य : अब्रह्म का त्याग ब्रह्मचर्य है । मैथुन संज्ञा पर विजय पाने के लिए विकार युक्त रूप का दर्शन, उसका स्पर्श, भोग कथा का श्रवण तथा संभोग क्रिया का त्याग करना एवं ब्रह्म में (आत्मा में) स्थिर रहने के लिए यत्न करना परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य' नामक यतिधर्म हैं ।
'हे क्षमाश्रमण' इन शब्दों का प्रयोग करते ही, ‘इन यतिधर्मों का पालन करनेवाले, विशिष्ट गुणसंपन्न व्यक्ति को मैं 'इच्छापूर्वक वंदन करता हूँ, ऐसा भाव उल्लसित होता है । इससे साधक गुणों के अभिमुख होता है। फलतः वंदन के समय में उसके खुद के कषाय भी शांत हो जाते हैं, इस तरह वंदन करने से क्षमाभाव को रोकनेवाले कर्मों का भी नाश होता है ।
इतना खास ध्यान में रखना चाहिए कि, जिन्हें 'इच्छामि खमासमणो' बोलते हुए मोक्षमार्ग के उपकारी क्षमादि गुणयुक्त उत्तम पुरुष हृदयस्थ होते हों, उनके प्रति हृदय में अत्यंत बहुमान भाव होता हो एवं ऐसे गुण अपने में प्रगट करने की इच्छा हो, उन्हें ही यह पद बोलते हुए क्षमाभाव को रोकनेवाले कर्मों का नाश वगैरह ऊपर कहे हुए लाभ होने की संभावना है, अन्य को नहीं ।
क्षमादि दस धर्म से युक्त उत्तम पुरुषों का स्वरूप जिसने सूक्ष्म बुद्धि से सोचा हो, क्षमादि गुण कितने विशिष्ट हैं, वह जिसके ख्याल में हो एवं उसके कारण जिसके हृदय में क्षमावान के प्रति भक्ति का भाव उल्लसित हुआ हो, वैसी आत्माओं को ही स्वेच्छा से वंदन करने की इच्छा होती है । इसके अलावा जो लोकाचार से या किसी आकांक्षा से अथवा 'वंदन करना चाहिए' यह ठीक है, ऐसी सामान्य बुद्धि से वंदन करता है, उसे इस वंदन क्रिया से विशेष लाभ नहीं हो सकता ।
जावणिज्जाए - शक्ति सहित, यापनीया द्वारा (वंदन करता हूँ) वंदन की क्रिया किस तरह करनी है यह बतलाते हुए साधक प्रथम यह कहता है कि, 'मुझे यह क्रिया यापनीयापूर्वक याने कि अपनी मन-वचन