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सूत्र संवेदना
जगत्
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परमात्मा के वचन से मुनि जानता है कि बहिर्वर्ती तमाम पदार्थ मेरी आत्मा के लिए अनुपयोगी हैं । अतः वह खाने पीने, पहनने की या अन्य किसी भी सामग्री या अपने पर भक्ति भाव रखनेवाले व्यक्ति के प्रति कोई लगाव नहीं रखता । केवल स्व और पर के कल्याण मात्र की मनोवृत्ति रखता है । इस तरह भगवान के वचनानुसार स्व-पर के संयम की वृद्धि हेतु, पर पदार्थ की इच्छा के त्यागपूर्वक जीने का यत्न करना, 'निर्लोभता' या 'मुक्ति' नाम का यतिधर्म है ।
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तप : इहलोक एवं परलोक की किसी भी प्रकार की अपेक्षा के बिना मात्र कर्मनिर्जरा के लिए आहारादि का त्याग करके उनके प्रति जो राग-द्वेष है उनको दूर करने का प्रयत्न 'तप' नाम का यतिधर्म है। वह बाह्य एवं अभ्यंतर के भेद से बारह प्रकार का है ।
संयम : मन एवं इन्द्रिय को वश में रखना, संयम है । इन्द्रिय, कषाय एवं तीन प्रकार के दंड के निग्रह द्वारा प्रेक्षापूर्वक आस्रव के द्वारों को बंध करना 'संयम' नाम का यतिधर्म है ।
सत्य : यथार्थ बोलना सत्य है । गुरु एवं आगम सूत्रों द्वारा जिनकी आज्ञा मिली हो, जो दूसरों को संताप करनेवाला न हो, जिसमें दोष न हो, जो वचन निशंक हो एवं शास्त्रों का जो विषय हो, ऐसे हितकारी, मित एवं पथ्य वचन बोलना, 'सत्य' नाम का यतिधर्म है ।
शौच : मन-वचन-काट्या, की पवित्रता, शौच है। मन से हुए अशुभ विचारों, वचन से हुई स्खलनाएँ एवं काया से हुए अपराधों के कारण पापमल से मलिन बनी आत्मा को आलोचना एवं प्रायश्चित्त से शुद्धि करना, ‘शौच' नामक यतिधर्म है ।
आकिंचन : किसी भी प्रकार का परिग्रह रखने की इच्छा का अभाव आकिंचन है । संयम के लिए उपकारी न हो, ऐसी एक भी वस्तु का ग्रहण नहीं करना, 'आकिंचन' नाम का यतिधर्म है ।
6. बारह प्रकार के तप की जानकारी के लिए देखें सूत्र संवेदना - ३ में नाणंमि सूत्र गाथा ५-६-७।