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कर्मरहित होने के लिए जीव को द्विपक्षी व्यूह अपनाना पड़ता है। एक तो नए कर्मों को आने से रोकना एवं दूसरा पूर्ण तरह से न रोक सके तो कर्मों का आस्रव कम से कम हो वैसी व्यवस्था करना। दूसरी तरफ भवोभव से संचित कर्मों को आत्मा के ऊपर से झाड़ कर फेंक देना, जिसे निर्जरा कहते हैं। इन दोनों बातों को सिद्ध करने के लिए ही आराधना मार्ग बताया है एवं उसका विधि-विधान भी निश्चित किया गया है।
ये विधि-विधान अर्थात् सूत्र, जिनके सहारे आराधना करनी होती है। सूत्रों के रचयिता गणधर भगवंत हैं। वे सूत्र अपने सद्भाग्य से आज तक संभाल कर रखे गए हैं। इन सभी सूत्रों के आधार से सभी धर्म क्रियाएँ की जाती हैं, परन्तु बड़ी से बड़ी गलती ये है कि, हमने अधिकतर इन सूत्रों का समझे बिना सिर्फ रटन किया है, जिसके परिणाम से उनमें जितनी शक्ति उत्पन्न होनी चाहिए एवं जितने प्रमाण में होनी चाहिए उतनी होती नहीं। परिणाम स्वरूप विशेष कर्मक्षय नहीं होता। सूत्रों का रटन करने से जीव को लाभ होता है, परन्तु वो बहुत सामान्य होता है। जहाँ से करोड़ों मिले वहाँ से कौड़ियाँ लेकर वापस आये ऐसा लाभ (!) होता है। ___ यदि हम सूत्रों को समझकर भाव के साथ अपनी धर्मक्रियाएँ करें तो उन्हीं सूत्रों में से कल्पनातीत शक्ति उत्पन्न होती है जो थोकबंध कर्मों की निर्जरा कर सकती है। इसके अलावा भावपूर्वक बोले गए सूत्रों से नए आनेवाले कर्म रुकते हैं एवं पूर्ण संवर साधा जाता है। इसके अलावा, उस समय जिन कर्मों का आस्रव होता है, वह भी शुभ कर्मों का आस्रव होता है। सूत्रों में शब्द का महत्त्व है, परन्तु उससे भी अधिक गुणा महत्त्व उसके भावों में है। एक व्यवहारिक वंदन जैसी सामान्य क्रिया भी अगर भावविहीन हो तो उसके बोलनेवाले और करनेवाले पर कोई खास असर नहीं पड़ता जब कि, यहाँ तो बात है धर्म की आराधना की जिसमें हमें देव, गुरु एवं धर्म जैसे सर्व शक्तिमान तत्त्वों के साथ सम्पर्क साधना होता है। ऐसी कल्पनातीत शक्ति से सम्पन्न तत्त्वों का आविर्भाव हमें सूत्रों के सहारे करना