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प्रवेशक तत्त्व संवेदन - आराधना का एक आवश्यक सूत्र संवेदना एक दृष्टि से विशिष्ट पुस्तक है। इतना ही नहीं, परन्तु अध्यात्म मार्ग के आराधक के लिए अति आवश्यक है । हमने पिछले जन्मों में आराधना की होगी जिसके प्रताप से यहाँ तक पहुँचे हैं एवं ऐसी पुस्तक पढ़ने के लिए तैयार हुए हैं। बाकी इस काल में ऐसा वाचन करने की प्रीति भी जीवों को भाग्य से ही होती है एवं जहाँ प्रीति न हो वहाँ प्रयत्न तो कहाँ से होगा ? शायद हम कितने जन्मों के आराधक रहे होंगे तो भी आज तक हम संसार में भटक रहे हैं और अपना ठिकाना बना नहीं - इसका एक कारण यह लगता है कि, हमने अधिकतर ओघ संज्ञा से आराधना की होगी। जितने भी जीव ओघ संज्ञा से आराधना मार्ग पर आगे बढ़े होंगे, वे ज्यादातर द्रव्य क्रिया पर ही अर्थात् कोरी क्रिया पर ही अटक गए होंगे। ये तो ऐसी बात हुई कि मोक्षमार्ग संबंधी कुछ सुना, उसको अच्छी तरह से समझा एवं उसके उपर यात्रा भी की; परन्तु कहीं कुछ चूक गए जिसके परिणाम स्वरूप लक्ष्य पर पहुँच नहीं सके एवं समग्र यात्रा केवल एक कवायत जैसी बन कर रह गई। हम कहाँ चूक गए एवं क्या चूक गए, वो बात एक तरीके से साध्वीजी श्री प्रशमिताश्रीजी ने इस पुस्तक में की है एवं आगे का मार्ग स्पष्ट किया है।
समग्र जैन धर्म के मूल में 'कर्म' की बात कही गई है । सकल कर्मों के क्षय बिना किसी का मोक्ष हुआ नहीं एवं होगा भी नहीं। हमारी आत्मा कर्मों से आवृत्त है। कर्मों से लदी हुई है एवं इन सभी कर्मों को काटे बिना वो परम ऐश्वर्य को कदापि प्राप्त नहीं कर सकती। इसलिए समग्र साधना का सार एक ही बात में आ गया है कि, किस तरह से कर्मक्षय कर सकते हैं? एवं तरह-तरह की साधना-आराधना करने के बाद भी हम आज तक क्यों सकल कर्मों का क्षय नहीं कर सके, ये बात भी सोचने जैसी है।