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________________ सूत्र संवेदना २. वचनगुप्ति : सर्व प्रकार से वचन का त्याग करना - हाथ या मुखादि की चेष्टा या ईशारों के त्यागपूर्वक मौन का अवलंबन लेना, वचनगुप्ति है । अथवा पौद्गलिक किसी भी भाव में प्रवृत्ति न करना, वचनगुप्ति है अथवा निरवद्य वचन बोलना, वचनगुप्ति है । ३. कायगुप्ति : काया के अनावश्यक व्यापारों का त्याग करना एवं उपसर्गादि प्रसंगों में भी काया को चलायमान न करना, कायगुप्ति है अथवा काया को सावध मार्ग में से रोककर निरवद्य क्रिया में जोड़ना, कायगुप्ति __इस प्रकार से पाँच समितियाँ, कुशल मार्ग में प्रवृत्तिरूप हैं एवं तीन गुप्तियाँ मुख्यरूप से कुशल-अकुशल सर्व भावों को दूर करके सिर्फ ज्ञान स्वभाव को प्रगट करने के यत्न रूप हैं । __मुनि समझते हैं कि रागादि के सब भाव आत्मा के लिए उपद्रव स्वरूप हैं । मात्र ज्ञानरूप अपना स्वभाव ही सुखरूप है, इसलिए इस स्वभाव के लिए यत्न करना चाहिए । अतः मुनि रागादि को उत्पन्न करनेवाले तमाम विषयों की ओर से अपने चित्त को हटाकर ज्ञाता भाव को प्रकट करने का प्रयत्न करते हैं । उसके कारण राग-द्वेष-क्रोधादि के भाव धीरे धीरे शांत होते हैं एवं क्षमादि भावों की वृद्धि होती हैं । इस तरह साधक उपयोग स्वरूप अपने स्वभाव के अनुरूप बनता जाता है । ऐसी स्थिति में प्रवर्तमान मन-वचन-काया के योग, भाव, गुप्ति स्वरूप हैं । _ विकल्पवाली दशा में मुनि शास्त्र वचन के पूर्ण उपयोगपूर्वक संयममार्ग में दृढ़ यत्न करता है । आत्म भाव में जाने के लिए अनेकविध क्रियाएँ करता है, वे सब समिति स्वरूप हैं । समिति काल में आत्मभाव के अभिमुख मनवचन-काया का जितना गोपन होता है, उतने अंशों में गुप्ति तो होती ही है। इस तरह पहले अठारह अप्रशस्त दोषों की निवृत्तिरूप गुण बताने के बाद, प्रशस्त गुण में प्रवृत्तिरूप गुण बताए है। जिन्होंने पहली गाथा के १८ गुण प्राप्त किए हों, वे ही महाव्रतों का पालन कर सकते हैं एवं उनका
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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