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श्री पंचिदिय सूत्र
६. धर्म चिंतार्थ आर्त्तध्यान होने से (असमाधि आदि से) धर्मध्यान में
मन स्थिर न रह सके तब, मुनि शुद्ध आहार की गवेषणा करते हैं ।
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४. आदान भंडमत्तनिक्खेवणा समिति : संयम साधना में उपयोगी वस्त्रपात्र, उपधि एवं उपकरणों को लेने या रखने का प्रसंग आए, तब उपयोगपूर्वक देखकर, प्रमार्जन करके वस्तु को लेना या रखना, वह चौथी समिति है । चौथी एवं पाँचवी समिति भी निष्परिग्रह स्वरूप आत्म स्वभाव का अपवाद है ।
आत्मा का मूल स्वभाव तो अपरिग्रही है, इसलिए लब्धि एवं शक्ति से युक्त मुनि कुछ भी नहीं रखते, तो भी जिनके पास वैसी लब्धि या शक्ति नहीं होती, वैसे मुनि शीतादि से आर्त्तध्यान न हो, इसलिए वस्त्र रखते हैं, आहारादि नीचे गिरने से हिंसा न हो, इस कारण पात्र रखते हैं एवं स्मृति के अभाव के कारण पुस्तक रखते हैं ।
इन कारणों से रखे गए वस्त्र - पात्र या अन्य उपकरणों का मुनि यत्नपूर्वक उपयोग करते हैं ।
५. पारिष्ठापनिका समिति : संयम मार्ग में अनावश्यक वस्त्र - पात्रआहार - मल-मूत्र आदि का विधिपूर्वक त्याग करना ( परठवना) । जहाँ मलमूत्रादि का विसर्जन करना हो, वहाँ निर्जीव भूमि को देखकर - ' अणुजाणह जस्सुगहो' कहकर बाद में पारिष्ठापन करना और परठवने के बाद 'वोसिरे-वोसिरे' कहना, यह पारिष्ठापनिका समिति है ।
तीन गुप्तियों का स्वरूप : गुप्ति शब्द 'गुप्' धातु में से बना है । गुप् अर्थात् गोपन करना, रक्षा करना, रोकना, निग्रह करना । जिस क्रिया द्वारा अनिष्ट, मन, वचन, काया की प्रवृत्ति रुकती है, वह गुप्ति है अथवा आस्रव या संसार के भावों से आत्मा का निवर्तन कर उसे अपने भाव में रखने का प्रयत्न गुप्त है ।
९. मनोगुप्ति : मन को शुभ-अशुभ सब विकल्पों से रोककर समताभाव में रखना अथवा अशुभ विकल्पों से रोककर शुभ विकल्पों में रखना, मनोगुप्ति है ।