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सूत्र संवेदना
के ऊपर भी मूर्च्छा (लगाव - आसक्ति) का त्याग इस व्रत में निहित है । इसलिए मुनि साधना के लिए उपयोगी अनेक प्रकार की सामग्री रखते हैं, तो भी उस सामग्री पर मूर्च्छा नहीं रखते ।
'आत्मा का शुद्ध स्वरूप' आनंदप्रद है, वही तत्त्व है, वही प्राप्तव्य है, ऐसी संवेदना पूर्वक शुद्ध आत्म स्वरूप को प्राप्त करने की जिसे तीव्र रूचि हो, स्वरूप प्राप्ति का उपाय अपने भाव - प्राण का रक्षण ही है, ऐसा बुद्धि में स्थिर हुआ हो तथा अपने भाव-प्राण के रक्षण के लिए ही जो पर-प्राण के रक्षण में प्रवृत्त हो, उसे ही भाव से महाव्रत की प्राप्ति हो सकती है ।
इस पद का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है कि,
“महासत्त्वशाली मेरे गुरु भगवंत मेरू पर्वत ऊठाने तुल्य एवं तलवार की धार पर चलने तुल्य महाव्रतों का आजीवन विशुद्ध पालन करते हैं । जब कि सत्त्वहीन मैं छोटे से नियम को अल्प समय के लिए भी अच्छी तरह से निभा नहीं पाता । इन गुरु भगवंतों का स्मरण करके मैं भी उनके जैसा सत्त्व प्रकट करने का यत्न करूँ ।”
पंच विहायार पालण - समत्थो : (गुरु भगवंत) पाँच प्रकार के आचारों को पालने में समर्थ होते हैं ।
जिसका आचरण किया जाए, वह आचार' कहलाता है । आचार अर्थात् आचरण । जिससे ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति तथा वृद्धि हो, वैसे आचरण को आचार कहते हैं । ये आचार पाँच प्रकार के हैं । १. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार, ३. चारित्राचार, ४. तपाचार, ५. वीर्याचार.
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ज्ञानगुण की वृद्धि के लिए काल- विनय - बहुमान आदि ८ आचारों का पालन करना, ज्ञानचार है । दर्शन गुण की वृद्धि के लिए शंका-कांक्षा आदि दोषों को टालकर तत्व को समझने के लिए प्रयत्न करना, दर्शनाचार
8. आचर्यते इति आचार- जो वह आचार आचरण किया जाए ।