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श्री पंचिदिय सूत्र .. ३. सर्वथा अदत्तादान विरमण व्रत : वस्तु के मालिक की आज्ञा के बिना वस्तु को ग्रहण नहीं करना, ये तीसरा सर्वथा अदत्तादान विरमण व्रत है ।
धनादि के मालिक की अनुमति के बिना उसको ग्रहण नहीं करना चाहिए। जैसे सचित्त फल आदि का मालिक उसका जीव होता है, उसकी आज्ञा के बिना उसको ग्रहण नहीं करना चाहिए। वैसे ही साधक आत्मा के मन-वचन-काया, देव-गुरु को समर्पित होते हैं, इसलिए साधक, को देव-गुरु की इच्छा या आज्ञा के बिना अपने मन-वचन-काया का उपयोग नहीं करना चाहिए । इस तरीके से स्वामी अदत्त, जीव अदत्त, तीर्थंकर अदत्त एवं गुरु अदत्त के त्याग स्वरूप यह व्रत है । इस व्रत को पालने के लिए संयमी आत्मा सदा अपने देवगुरु की इच्छा एवं आज्ञा को ध्यान में रखकर प्रवृत्ति करते हैं ।
४. सर्वथा मैथुन विरमण व्रत : स्त्री-पुरुष के संयोग रूप मैथुन क्रिया का या मन-वचन-काया से सर्व प्रकार के अब्रह्म का त्याग करना, सर्वथा मैथुन विरमण व्रत है । इसलिए मुनि मात्र मैथुन क्रियारूप अब्रह्म का ही त्याग करते हैं, ऐसा नहीं है, परन्तु पाँचों इन्द्रियों के विषयों के उपभोग में सावधान रहते हैं । रागादि उत्पन्न हों, ऐसे विषयों से मुनि दूर रहते हैं । इस व्रत को विशेष प्रकार से पालने के लिए ही मुनि मलिन वस्त्र पहनते हैं, शरीर-संस्कार का त्याग करते हैं एवं उत्तम भाव से श्रेष्ठ कोटि की ब्रह्मचर्य की गुप्ति धारण करते हैं ।
५. सर्वथा परिग्रह विरमण व्रत : नौ प्रकार के बाह्य परिग्रह का एवं चौदह प्रकार के अभ्यंतर परिग्रह' का त्याग करना, सर्वथा परिग्रह विरमण व्रत है । दूसरी अपेक्षा से मूर्छा (लगाव) ही परिग्रह है एवं मूर्छा का त्याग, ही यह व्रत है। बाह्य रीति से किसी भी वस्तु का त्याग करने मात्र से यह व्रत पूर्ण नहीं होता; परन्तु उसके उपरांत संयम के लिए उपयोगी सामग्रियों 7. धन', धान्य, जमीन, मकान, चांदी', सोना', अन्य, धातुएँ , चतुष्पदः ये नौ प्रकार के बाह्य
परिग्रह हैं एवं तीन वेद, चार कषाय, हास्यादि ६ और मिथ्यात्व : ये चौदह प्रकार के अभ्यंतर परिग्रह हैं ।