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________________ सूत्र संवेदना भोगादि को खराब मानकर उनका त्याग करने का भाव नहीं होता । इसके उपरांत वे जिस भौतिक सुख को चाहते वह सुख अन्य को दुःख दिये बिना मिलता नहीं, अतः उनकी वर्तमान कालीन अहिंसा भी हिंसा में ही परिणमित होनेवाली है । इसलिए उनकी अहिंसा अहिंसा नहीं फलतः हिंसा ही है । हाँ, कभी स्थूल व्यवहार से या बाह्य से यह कह सकते हैं कि उनमें महाव्रतों का आचरण है । जिज्ञासा : मुनि छ: काय के जीवों की रक्षा करने के लिए यतमान रहते हों तो उनकी विहार आदि प्रवृत्तियाँ कैसे संभव है ? क्योंकि विहार आदि प्रवृत्तियाँ करने में वायुकाय आदि जीवों की हिंसा तो होती ही है । तृप्ति : विहार या भिक्षाटनादि क्रिया से बाह्य दृष्टि से वायुकायादि की हिंसा होते हुए भी वास्तविकता की दृष्टि से यह हिंसा नहीं है क्योंकि, एक स्थान पर स्थिर रहने से वायुकाय की हिंसा भले न हो, तो भी उन उन स्थानादि विषयक प्रतिबंध (रागादि) होने की संभावना है। इस तरह क्षेत्रादि में प्रतिबंध न हो, इसलिए ही नवकल्पी विहार की भगवद् आज्ञा है । इस रीति से भगवान की आज्ञानुसार सर्वत्र अप्रतिबद्ध रहने की इच्छा से की हुई प्रवृत्ति में कभी बाह्य दृष्टि से हिंसा हो, तो भी वह भाव प्राण की रक्षा का उपाय होने से अनुबंध से तो अहिंसा ही है । ऐसी प्रवृत्ति से महाव्रत को कभी आँच नहीं आती । २. सर्वथा मृषावाद विरमण व्रत : सर्व प्रकार की मृषा भाषा का त्याग करना। क्रोध, लोभ वगैरह कषाय एवं हास्य, भय आदि नोकषाय के अधीन होकर असत्य न बोलना, और सत्य भी अप्रिय या अहित करनेवाला हो, तो नहीं बोलना, मृषावाद विरमण व्रत है । यह मृषावाद विरमण व्रत भी द्रव्य एवं भाव के भेद से दो प्रकार का है । असत्य न बोलना द्रव्य से मृषावाद विरमण व्रत है एवं भगवान के वचन के स्मरणपूर्वक आत्मभाव को पीड़ा न पहुँचे वैसा ही बोलना, भाव से मृषावाद विरमण व्रत है । इस प्रकार प्रत्येक व्रत द्रव्य से एवं भाव से, निश्चय से एवं व्यवहार से अनेक भेदवाले हैं ।।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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