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श्री पंचिदिय सूत्र
अपने भाव प्राणों की रक्षा करना याने कि अपने चित्त को रागादि विकल्पों से मुक्त रखना, अभ्यंतर प्राणातिपात विरमण व्रत है, क्योंकि, उसमें अंतरंग भावों का प्राधान्य है।
द्रव्य हिंसा करने की अपेक्षा भाव हिंसा आत्मा के लिए बहुत अनर्थकारी है । भाव हिंसा कषायरूप होने से आत्मा को वर्तमान काल में भी पीड़ा देती है और भविष्य में भी कर्मबंध करवाकर महापीड़ा उत्पन्न करती है । इसलिए मुनि विकल्प करने रूप भाव हिंसा से बहुत सावधान रहते हैं एवं इस हिंसा से बचने के लिए ही वे द्रव्य हिंसा से भी दूर रहते हैं, क्योंकि किसी के द्रव्य प्राणों का विनाश या द्रव्य-प्राण की उपेक्षा कषाय के बिना संभव नहीं है । ऐसे भाव से अहिंसा व्रत का पालन ही मोक्ष का कारण बनता है, इसलिए मुनि सतत उसमें पुरुषार्थ करते हैं ।
इस व्रत के यथायोग्य पालन के लिए मुनि भगवंत शुद्ध आहार-पानी की गवेषणा करते हैं, समिति-गुप्ति का पालन करते हैं, किसी भी जीव को लेश मात्र भी पीड़ा न हो जाए, उसका विशेष ध्यान रखते हैं एवं जगत के तमाम भावों के प्रति उदासीन रहते हैं ।
संसार के किसी भाव में राग-द्वेष न हो जाए, उसकी सावधानी रखते हैं एवं सर्व जीवों में ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु' रूप तुल्य वृत्ति धारण करते हैं ।
जिज्ञासा : एकेन्द्रियादि जीव अनाभोग के कारण बाह्य से मन-वचनकाया से हिंसा नहीं करते एवं अभव्य आत्मा समझकर मन-वचन-काया से हिंसा नहीं करते, तो उनमें महाव्रत कहलाता है या नहीं ?
तृप्ति : एकेन्द्रियादि जीव भले षट्काय जीवों की हिंसा नहीं करते, तो भी सर्व जीवों की हिंसा से अटकने का उनका भाव नहीं होता, इसलिए उनमें महाव्रत या अणुव्रत है, ऐसा नहीं कह सकते ।।
अभव्य आत्माएँ या संसार रसिक आत्माएँ भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए व्रत का पालन करती हैं । इसलिए वे मन-वचन-काया से हिंसादि में प्रवृत्त न हों, तो भी उनमें महाव्रत है, ऐसा नहीं कहा जाता क्योंकि, उनमें