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सूत्र संवेदना
की अपेक्षा से जो महान हैं, जिसका क्षेत्र विशाल तथा पालने में भी जो दुष्कर हैं, ऐसे व्रतों को महाव्रत कहते हैं ।
महाव्रत के पाँच प्रकार हैं । पाँच महाव्रतों का स्वरूप:
१. सर्वथा प्राणातिपात विरमण व्रत : सूक्ष्म-बादर, त्रस-स्थावरादि सर्व प्रकार के जीवों की मन-वचन एवं काया से हिंसा नहीं करना, न करवाना एवं हिंसा करनेवाले की अनुमोदना नहीं करना, यह इस व्रत का स्वरुप है।
यह प्राणातिपात विरमण व्रत बाह्य (द्रव्य) एवं अभ्यंतर (भाव), निश्चय नय एवं व्यवहार नय के भेद से दो भेदवाला है । बाह्य तरीके से छः काय के जीवों का वध नहीं करना, बाह्य हिंसा से अटकने रूप व्रत है । दैविक सुखों के लिए संयम स्वीकारनेवाले अभव्यादि जीव भी ऐसा व्रत पालते हैं । परन्तु ऐसे द्रव्य से पाले हुए प्राणातिपात-विरमण व्रत से विशेष आध्यात्मिक लाभ नहीं होता । जब कि, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, समता इत्यादि जो जीव के भाव प्राण है उनकी रक्षा करना भाव प्राणातिपात विरमण व्रत है । अतः राग-द्वेष आदि कोई कषाय एवं कषायों के कारण होनेवाले विकल्पों का परिहार करना तथा अन्य आत्मा को भी राग-द्वेष आदि भाव उत्पन्न करनेवाले निमित्त न देना; वह अपने और अन्य के भाव-प्राण की रक्षा रूप अभ्यंतर (भाव) प्राणातिपात विरमण व्रत का पालन हैं । इसलिए महामहोपाध्यायजी तो कहते हैं कि, एकता ज्ञान निश्चय दया, सद्गुरु तेहने भाखे, जेह अविकल्प उपयोगमा निज प्राणने राखे...९
राग-द्वेषादि मोह के विकल्पों से मुक्त शुद्ध ज्ञान गुण के साथ जो एकता है, उसे सद्गुरु भगवंत निश्चयनय से दया कहते हैं ।
निर्विकल्प उपयोग में रहकर समता आदि अपने भावप्राणों की रक्षा करना, ही निश्चयनय से दया या अहिंसा है ।