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________________ श्री पंचिदिय सूत्र ८५ है । पाँच समिति एवं तीन गुप्ति का पालन करना, चारित्राचार है । बारह प्रकार के तप में प्रयत्न करना, तपाचार है एवं सभी आचारों में वीर्य का प्रवर्तन करना, वीर्याचार है । आचार्य ज्ञानादि गुणसंपन्न होते हैं, तो भी ज्ञानगुण की वृद्धि के लिए, सम्यग्दर्शन की निर्मलता के लिए, भाव चारित्र की उत्तरोत्तर वृद्धि के लिए वे ज्ञानाचार आदि का आचरण करते हैं, चारित्र की विशेष भूमिका प्राप्त करने के लिए तपाचार एवं अप्रमाद भाव को प्राप्त करने के लिए वीर्याचार का पालन करते हैं । जिज्ञासा : ज्ञान एवं ज्ञानाचार आदि में क्या भेद है ? तृप्ति : पदार्थ का बोध होना ज्ञान है एवं सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने के लिए गुरु के प्रति विनय, ज्ञानी एवं ज्ञान का बहुमान, योग्य काल वगैरह "काले विनये बहुमाणे...” इस गाथा में बताए तरीके से ज्ञान को प्राप्त करने की क्रिया, ज्ञानाचार है । दर्शन अर्थात् श्रद्धा एवं श्रद्धा को प्राप्त करने या दृढ करने के लिए निःशंक होकर, कांक्षारहित होकर “निस्संकिय, निकंक्खिय..." इस गाथा में बताए ८ आचारों का पालन करना, दर्शनाचार है । चारित्र अर्थात् आत्मगुणों में रमणता एवं चारित्र के कारणभूत समिति, गुप्ति आदि का पालन करना, चारित्राचार है । तप अर्थात् इच्छा का रोध एवं इच्छा का रोध करने में कारणभूत १२ प्रकार के तप में प्रयत्न करना, तपाचार है । वीर्य याने सामर्थ्य, बल, पराक्रम, इत्यादि को छिपाए बिना अपनी शक्ति के अनुसार धर्म करना, वीर्याचार है ।। इस पद का उच्चारण करते समय साधक सोचता है कि, “प्रवृत्ति तो मैं भी करता हूँ एवं मेरे गुरु भगवंत भी करते हैं, पर मैं उससे रागादि की वृद्धि करके कर्मबंध करता हूँ, जब कि वे ज्ञानादि गुणों की वृद्धि करके कर्मनाश करते हैं । मेरी प्रवृत्ति 9. इन पाँचों आचार का विशेष बोध पाने सूत्र संवेदना-३ में से नाणंमि० सूत्र का अभ्यास करना चाहिए।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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