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सूत्र संवेदना स्वरूप सर्वविरति धर्म को रोके, उसे प्रत्याख्यानीय कषाय कहते हैं । इसीलिए प्रत्याख्यानीय कषाय के उदयवाले जीव सर्वविरति धर्म का स्वीकार नहीं कर सकते, परन्तु सर्वविरति के प्रति उनमें तीव्र अभिलाषा तो होती ही है और उसी कारण वे प्रयत्नपूर्वक भी सर्वविरति की शिक्षा समान देशविरति धर्म के व्रत-नियमों को जरूर पालते हैं ।
सर्वथा हिंसादि पाप की निवृत्ति का भाव तभी उत्पन्न होता है, जब जगत् के सभी द्रव्यों एवं सभी जीवों के प्रति समवृत्ति हो । इस समवृत्ति का भाव भी तब तक ही टिकता है कि जब तक मन-वचन-काया से करने-करवाने एवं अनुमोदन रूप अहिंसादि का पालन हो, परन्तु प्रत्याख्यानीय कषाय के उदयवाले ऐसे भावपूर्वक संपूर्ण अहिंसादि का पालन नहीं कर सकते ।
गुरु भगवंत इन कषायों के उदय से पूर्ण मुक्त होते हैं, इसीलिए मोक्ष के । अमोघ साधनभूत भावचारित्र में मग्न रहते हैं ।।
४. संज्वलन कषाय : संयमी आत्मा को भी थोड़ा जलाए, वह संज्वलन कषाय है । भाव से संयम जीवन प्राप्त करने के बाद और त्रिविध-त्रिविध अहिंसादि का पालन करने के बावजूद संज्वलन कषाय का उदय संयम जीवन में अतिचार उत्पन्न करता है । संज्वलन कषाय का प्रशस्त उदय मोक्ष एवं मोक्ष के उपाय के प्रति तीव्र राग (इच्छा) स्वरूप तथा असंयम के प्रति द्वेष के परिणाम स्वरूप है । यह प्रशस्त कोटि के संज्वलन राग-द्वेष संयम की वृद्धि के कारण बनते हैं, जब कि अप्रशस्त संज्वलन कषाय का उदय चंडरुद्राचार्य की तरह अतिचार भी उत्पन्न करवाता है ।
इस कषाय का उदय दसवें गुणस्थानक तक होता है । प्राथमिक कक्षा में अप्रशस्त ऐसे इन कषायों का उदय अतिचार उत्पन्न करवाकर संयम को सातिचार करता है । ऊँची कक्षा में ये कषाय अतिचार पैदा नहीं करते हुए भी प्रशस्त विकल्प करवाते हैं । निर्विकल्प अवस्था की प्राप्ति के बाद भी सूक्ष्म तरीके से इन कषायों का उदय होता है, परन्तु तब ये कषाय विकल्पों को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते।